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कुछ अनछुए सवाल जोहरा के बाद

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बहुत कम कलाकार ऐसे होते हैं जिन्हें ताउम्र उनके दर्शक अपने दिलों के तख्त पर बिठा कर रखते हैं ,जोहरा सहगल भी एक ऐसी ही जीवंत कलाकार थीं। जिन्होंने अपने अभिनय के मिजाज से बाबस्ता ही लोगों की नजर अपनी ओर खींची। उनकी तमाम जिंदगी संघर्षों में बीती है। उनके जाने के बाद एक सवाल पैदा होना लाजिमी है कि एक बूढ़ी महिला कलाकार अपने स्वास्थ्य संबंधी कारणों और अपनी उम्र को देखते हुए एक आखिरी मांग यह रखती हो कि उसे पहली ग्राउंड फ्लोर पर घर दिया जाए ताकि उन्हें जीवन जीने में आसानी हो मगर सरकार को उन्हें घर देने में इतना वक्त लग गया कि तब तक जोहरा ने अपना घर किसी और दुनिया में तलाश लिया। यह घटना किसी पहले कलाकार के साथ नहीं हुआ है बल्कि इससे पहले भी शमसाद बेगम का उदाहरण कला जगत के सामने है कि लोकप्रियता की सीढ़ी से चलकर एक कलाकार फिर किस अंधेरे में गुम हो जाता है जहां से उसकी जिंदगी महज अंधरे का हमसफर हो जाती है। शमसाद बेगम के पास अपना घर तक रहने के लिए नहीं था और उनका आखिरी वक्त काफी गरीबी में गुजरा। शमसाद बेगम की खनकती आवाज के सभी दीवानें थे मगर उनकी आह की आवाज कभी बहरी दुनिया ने नहीं सुनी। ऐस
ए जिंदगी मैं तेरी बारिश की हर बूंद में जीना चाहती हूं,  जी भर के भींगना चाहती हूं,नाचना चाहती हूं,गिरना चाहती हूंं और न जाने क्या-क्या करना चाहती हुं?  मगर तेरी ये कड़कती बिजलियाँ रोकती है मुझे,मुझमें डर पैदा करती है,कहती है कि तू घर में कैद रह वहाँ तेरे लिए सारी सुविधाएं मौजूद है,वहां तुझे बिल्कुल भी तकलीफ नहीं होगी। तेरी जिंदगी इससे बाहर नहीं है ,यह एक घर से शुरू होकर दूसरे किसी बंद आंगन में खत्म होगी। वह घर भी तेरा नहीं होगा वहाँ तू महज एक सामान की तरह रहेगी। जब तक खामोश किसी कोने में पड़ी रहेगी तब तक तो रहेगी मगर जैसे ही तेरे लब ने आवाज निकाली कि तू बाहर फेंक दी जाएगी।

कब महिलाएं होंगी स्वंय निर्णायक?

जब कभी दिल्ली के किसी कार्यक्रम में जाती हूं तो वहाँ महिलाओं की मौजूदगी और उनके आत्मविश्वास की मुरीद हो जाती हूँ,सोचती हूं कि ऐसी कौन सी चीज इनके पास है जो हमारे ग्रामीण या शहरों महिलाओं के पास नहीं है जिसके कारण वह अपनी आवाज को हमेशा मन के अंदर दबाए-छिपाए रहती हैं और पितृसत्ता उनकी इसी खामोशी को अपनी ताकत की सीढ़ी समझ लेता है।                 भारत में सिर्फ 12 प्रतिशत संपत्ति ही महिलाओं के नाम पर है जो एक चिंतनीय विषय है क्योंकि मनुष्य की स्वतंत्रता का आधार  उसकी आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती  है। मनुष्य की आर्थिक कमजोरी मुक्ति की राह में सबसे बड़ा बाधक होता है। औरतों के मामले में तो यह कारक सबसे ज्यादा जिम्मेवार है।पुरुष वर्ग हमेशा इस आत्ममुग्धता में रहता है कि महिलाएं अपनी बुनयादी जरूरतों के लिए हमेशा उन पर निर्भर रहती है तो फिर वह अपने अस्तित्व के बारे में क्यों सोचें? एक बात मुझे हमेशा आश्चर्यजनक लगी है कि दुनिया के अस्तित्व को ढ़ोने वाली स्त्री का अपना अस्तित्व खतरे में आ गया। नारी के अस्तित्व को खतरे में लाने के पीछे एक लंबी प्रक्रिया है जिसको विभिन्न नारीवादी लेखिकाओं ने काफी

पत्रकारिता में महिलाएं

हाल ही में पत्रकारिता की छात्रा होने के नाते एक चर्चा में जाने का मौका मिला जिसमें देश भर से महिला पत्रकार आईं थी। चर्चा का विषय था “पत्रकारिता में महिलाएँ’’ यह विषय ही अपने आप में आधी आबादी का प्रतिनिधित्व कर रही था। तमाम मशहूर महिला पत्रकारों को सुनकर ऐसा लगा कि समय अपनी रफ्तार से चलता है जिसमें आए दिन परिवर्तन देखने को मिलता है। एक महिला होने के नाते आज भी पत्रकारिता के कुछ प्रश्न ठीक उसी तरह  खड़े हैं जो पिछले दशकों में उन बहादुर महिलाओं के सामने थे। जिन्होंने पत्रकारिता को सिर्फ पुरुषों की जागीर न रहने दिया। उन्होंने पत्रकारिता को सिर्फ एक पेशे के रूप में ही नहीं अपनाया बल्कि उस सोच को एक खुली चुनौती दी जिसमें पितृसत्ता यह मानती है कि महिलाओं के पास देह के अलावा और है क्या? उन सारी महिलाओं की उर्जा को देख मुझ जैसी नई पौध को एक नई रोशनी,नई उमंग मिली कि जब उस कठिन दौर में ये सभी मजबूत पितृसत्ता के ढाचे को तोड़कर जगह बना सकती हैं तो फिर आज के आधुनिक दौर में हम क्यों नहीं? इस चर्चा में कुछ तीखे प्रश्नों से रूबरू होने का मौका मिला कि आखिर क्यों ऐसे पदों पर ज्यादातर पुरुष ही काबिज

वोटों की राजनीति में वैमनस्यता कतई स्वीकार नहीं

मन के अंदर का वह प्रेम कितना धुंधला और कितना एकाकी नजर आने लगा है। उसकी तन्हाई में एक अजीब सा एहसास शामिल हो गया है जिससे दूर भागने का मन करता है। इतनी दूर जहाँ पर जिंदगी एक चराग बन जाए और उजाले महबूब। मगर प्रेम को बाजार ने यूं बेचना शुरू कर दिया जिससे महसूस होने लगा कि सीसे वाली उस दुकान से कोई नकली फूल खरीद लूं तो प्रेम मिल जाएगा मगर यहाँ भी मेरा प्रेम ठगा ही गया।                                   जब कभी सोचती हूं कि यदि यह सच होता तो पूरी दुनिया को क्यों न दुकान बना दिया जाए जहाँ पर सब कुछ प्रेम से होता। तब न सीरिया का कत्लेमाल सामने आता न ईरान की वह जमीन जो यह  भूल चुकी है कि कभी यहाँ पर शांति और प्रेम  घर में बसा करती थी। यहाँ तक कि भारत में क्षेत्रवाद के जहर के कारण कोई छात्र पीटाई से नहीं दम तोड़ देता।बस बाजार प्रेम का एक बिंब खड़ा कर रहा है जहां पर प्रेम की परछाई भी आधी अधूरी अवस्था में मानव हृद्यों के साथ खेला करती है। यह छाया हमेशा शहरों के उजाले में चक्कर लगाती है।आजकल बाजार का यह कदम शहरों तक नहीं बल्कि गाँवों के अंदर भी बड़े तेजी से बढ़ रहा है जहाँ पर न तो जीने योग्य स

गीतों की जिंदगी

साहित्य और संगीत के क्षेत्र में एक बहस वर्षों से चली आ रही है कि कला को कला के लिए या फिर जीवन के लिए होना चाहिए। इस बहस में कलाकार दो वर्गों में विभक्त हैं। एक भाग उनका है जो यह कहते हैं कि कला का मुख्य पक्ष मनोरंजन करना है और दूसरा है कि कला का समाज के प्रति कुछ उत्तरदायित्व भी होना चाहिए। पीट सीगर ऐसे लोगों में से थे जो यह मानते थे कि जरूरत पड़ी तो कला का प्रदर्शन राजनीतिक विरोध के लिए भी हो सक ता है। पीट सीगर का जन्म 3 मई 1919 को न्यूयार्क के पेटरसन में हुआ था। संगीत उन्हें विरासत में मिला था। सीगर ने अपनी कला का उपयोग विरोध जताने और लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए किया। उनकी गीतों में इस भावना की छाप साफ नजर आती थी जैसे “ सारे फूल कहां चले गए, हेमर गीत, टर्न टर्न टर्न, इत्यादि।लेकिन उनके दवारा गाए गीत वी शैल आवर काम ने सरहदों की सीमाएं तोड़ दी। उस गीत का प्रभाव इतना ज्यादा था कि भारत में उसका अनुवाद हम होंगें कामयाब आज तक लोगों की जुबां पर दर्ज है। अमेरिकी सरकार के विरोध में गाने के कारण इन्हें वहां की सरकार ने 50वें दशक में वामपंथी रूझान के कारण इन्हें ब्लेकलिस्ट में डाल दि

अपने हक को तलाशता बचपन

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जिंदगी के कुछ वक्त ऐसे होते हैं जिनको जीने की ख्वाहिश मानव मन के अंदर जीवन पर्यन्त बनी रहती है।कुछ ऐसा ही यादगार और रोचक वक्त बचपन का होता है जिसकी यादें हमेशा उर्जा प्रदान करती हैं। उस वक्त बेफिक्री का ऐसा आलम होता है कि दिन और रात का कुछ पता ही नहीं चलता। बेखौफ हंसने और रोने का नाम है बचपन,रात में देखे गए सपने को सच समझकर जीने का नाम है बचपन।इस समय में पाई गई शिक्षा की नींव ही हमारे कल को बेहतर बना पाती है।मगर अफसोस ! सबका बचपन कहां चहकती हुई मुस्कानों के बीच बीत पाता है वह तो पेट की भूख से शुरू होकर भूख तक ही खत्म हो जाता है।गरीबी आदमी के बचपन,जवानी और बुढ़ापे में बिल्कुल भी फर्क नहीं करती है।                                 आजादपुर मेट्रो स्टेशन के बाहर पानी बेचनेवाला ग्यारह वर्षीय सोहन बिहार के नवादा जिले का रहनेवाला है। बड़ी मासूमियत के साथ उसने बताया कि वह अपने मुहबोले चाचा के झूठ का शिकार बना है “ दो साल पहले मेरे चाचा ने कहा था कि दिल्ली चलो वहीं पढाउंगा तब से आज तक घर नहीं गया हूँ। ” उसकी बातों से ऐसा लगता था कि उसके मां-बाप को भी इस हकीकत का पता था मगर गरीबी और अशिक्ष

पर्यावरण के संकट

                                 पर्यावरण के संकट आज के समय में दुनिया किस विकास का हिस्सा होने जा रहा है यह एक सोचनीय विषय है।लगातार पर्यावरण को ताक पर रखकर बनाए गई सड़कें,पनबिजली योजनाएं,इमारतें,बांध और विभिन्न प्रकार के निर्माण मनुष्य को आगे की ओर नहीं पीछे की ओर धकेल रहे हैं।इसका एक उदाहरण पिछले साल जून में हुई उत्तराखंड त्रासदी है।जिस तरह नदियों ने अपनी जमीन वापस लेने के लिए तांडव मचाया वह किसी से छुपा नहीं है।हजारों परिवार बेघर हो गए,आस्था में रंगे लोगों ने अपने जान को नदियों में विसर्जित होते देखा।इन सब के पीछे सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि आखिर वह कौन से लोग हैं जो   प्रकृति से छेड़-छाड़ करने में भी बाज नहीं आते।हिमाचल प्रदेश में जिस तरह नदियों   के गर्भ को कुरेदकर सुरंगे बनाई जा रही है और जिस तरह से उनके मार्ग को परिवर्तित किया जा रहा है उसका खामियाजा वहां के आम लोग भुगतेंगें जिससे उनका कोई लेना-देना नहीं है।अब वहां के लोगों ने भी इसके खिलाफ एक मुहिम छेड़ दी है जो एक संघर्ष का हिस्सा है।भोले-भाले लोगों से जिस तरह से भूमि अधिकृत की जाती है वह भी एक सोचनीय मुद्दा है।यह सब पन

विचारधारा की तलाश में आप

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जनतंत्र में जनता कभी महज तमाशबीन रहती है तो कभी सर्वशक्तिमान सत्ता। जिससे दुनिया के हर तानाशाह व्यक्तित्व को खतरा रहता है।इसके गुस्से की गुंज से सत्ता की नींव कई बार हिल चुकी है।चाहे वह इंदिरा गांधी की सरकार हो या शीला दीक्षित की।मगर दिल्ली के सियासत की गर्मा-गर्मी में मैदान में दोनों ही सरकारें जनता द्वारा चुनी हुई हैँ।यह समय जनता के लिए काफी परेशानी वाला है।उन्हें यह सोचना है कि किसकी राह उनके सुख-दुख से गुजरती है और किसकी नहीं।दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने आंशिक मांगों को मान लिए जाने के कारण धरना खत्म कर दिया है।मगर यहाँ प्रश्न बड़े परिमाप का प्रतित हो रहा है कि दिल्ली पुलिस को केंद्र के हाथ में रखना चाहिए  या दिल्ली  सरकार के अंदर। एक मुख्यमंत्री होने के नाते अरविंद केजरीवाल की मांग जायज है कि सुरक्षा व्यवस्था की जवाबदेही के लिए जनता उनकी ओर देख रही है मगर एक प्रश्न यह भी उठता है कि क्या दिल्ली के विधी मंत्री सोमनाथ भारती को अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ देर रात किसी महिला के घर बिना किसी प्रशासनिक नोटिस के घुस कर उसे प्रताड़ित करना चाहिए था।इसका जवाब अरव

mazaz lakhnavi

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आज भी दूर कहीं बाजे बजने की आवाज आ रही थी।आजकल फिर चाचा परेशान रहा करते थे।उनकी     दोपहर और शाम की नींद में खलल पड़ गई थी।बड़ा परिवार मगर कहने को बड़ा था। सबको पता था कि बुढ़ी हड्डियां अब किसी काम की नहीं रह गई है इसलिए कोई उनका ख्याल रखने को तैयार नहीं था। उनके नींद में खलल पड़नें की सबसे बड़ी वजह चुनाव अभियान का प्रचार-प्रसार था। दिन में आर्शिवाद और   वोट   मांगने वालों के कारण नहीं सो पाते थे और रात में बेटे और बहू के झगड़े की वजह से। आजकल बेटे को मुफ्त घटिया दर्जे की शराब मिल जाया करती थी।जिसके कारण कमाना भी छोड़ दिया था। एक तो मंहगाई और कमाई कुछ नहीं।बच्चे आनेवाले पर्व की तैयारी के लिए उत्सुक तो थे मगर मां और पिता से हर रोज मार खाकर उन्होंने अपने आप को एक तमाशबीन बनाने के लिए तैयार कर लिया था जिसके कारण वह भी घर से बाहर ही रहा करते थे।हर दिन किसी न किसी नए पार्टी का झंडा पकड़कर नाचते और इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाते थे। उनके स्कूलों में भी प्रत्येक दिन वोट मांगने वालों की भीड़ लग ही जाया करती थी। उनके शिक्षक भी पढ़ानें में कम और नेताओं के वोट बैंक के बारे में ज्यादा बातें किया