आज भी दूर कहीं बाजे बजने
की आवाज आ रही थी।आजकल फिर चाचा परेशान रहा करते थे।उनकी दोपहर
और शाम की नींद में खलल पड़ गई थी।बड़ा परिवार मगर कहने को बड़ा था। सबको पता था
कि बुढ़ी हड्डियां अब किसी काम की नहीं रह गई है इसलिए कोई उनका ख्याल रखने को
तैयार नहीं था। उनके नींद में खलल पड़नें की सबसे बड़ी वजह चुनाव अभियान का
प्रचार-प्रसार था। दिन में आर्शिवाद और वोट
मांगने वालों के कारण नहीं सो पाते थे और रात में बेटे और बहू के झगड़े की
वजह से। आजकल बेटे को मुफ्त घटिया दर्जे की शराब मिल जाया करती थी।जिसके कारण कमाना भी छोड़ दिया था। एक तो मंहगाई और कमाई कुछ नहीं।बच्चे आनेवाले पर्व की
तैयारी के लिए उत्सुक तो थे मगर मां और पिता से हर रोज मार खाकर उन्होंने अपने आप
को एक तमाशबीन बनाने के लिए तैयार कर लिया था जिसके कारण वह भी घर से बाहर ही रहा
करते थे।हर दिन किसी न किसी नए पार्टी का झंडा पकड़कर नाचते और इंकलाब जिंदाबाद का
नारा लगाते थे। उनके स्कूलों में भी प्रत्येक दिन वोट मांगने वालों की भीड़ लग ही
जाया करती थी। उनके शिक्षक भी पढ़ानें में कम और नेताओं के वोट बैंक के बारे में
ज्यादा बातें किया करते थे। चाचा आजादी के बाद की पीढ़ी थे वो हर दिन चांद को देर
तक निहारा करते थे और सोचा करते थे कि वो सपने किस गली में गुम हो गए जहां भारत को
एक नए स्तर से गढ़ने की कोशिश हो रही थी। अब दूर तक अंधेरे थे और सड़कें सपाट नहीं
थी।जुगनुओं का कोई काफिला सितारों के टूटने जैसी चमक के साथ उन्हें डरा देता और
फिर वापस ग्रहन जैसे अंधेरे में उन्हें छोड़ देता ।उनके बूढ़े कंधों ने ही पीछले
साल पंचायत चुनाव में अधिक शराब पीने की वजह से मरने वाले बेटे का बोझ उठाया था।अब
वह थक चुके थे उनकी आत्मा हर दिन मौत को याद किया करती थी । कोई आशा की किरण
जिंदगी में बची नहीं थी जिससे उनके मन को थोड़ा भी सुकून मिले। उनकी आंखे हमेशा नम
रहा करती थी। मगर वोट मांगने वालों की आंखों में उतना दम कहां जो उस बच्चे कि उस
उत्सुकता को देखे जो अच्छे खाने की ख्वाहिश में दर-बदर भटका करता था और उन आंखों
को देखने की भी फुर्सत कहां जो हर रात को मौत के इंतजार में इस जमाने की तकलीफ के कारण रोया करती थी।
सावन की एक सुबह और नैनीताल की सैर
काठगोदाम से आंखों को मलते हुए हम दोनों बाहर आ गए, अभी दूर-दूर तक अंधेरा ही दिख रहा था. पिछली बार जब अकेले आई थी तो अंधेरा ख़त्म होने का इंतज़ार किया था, तब बारिश भी बहुत तेज़ हो रही थी. काठगोदाम प्यारा स्टेशन है, जहां से लगता है कि आप पहाड़ में आ गए और अब आगे की यात्रा बेहद सुखद होने वाली है. सुखद की अपनी व्याख्याएं हैं. सड़क पार करते ही पहली जो बस आई, उसके कंडक्टर से पूछा कि बस नैनीताल जाएगी, उसके हां कहते ही चढ़ गई. बस में सीट तो है नहीं, मेरे इतना बोलने से पहले बस रवाना हो चुकी थी. फिर किसी तरह हम दोनों ने एडजस्ट किया. बस में चढ़ते ही सब कुछ जैसे धीमा हो गया था, लोंगों के बात करने की रफ़्तार, जगहों के बदलने की रफ़्तार. कुछ धीमा हुआ भी था या ये मेरा वहम था. इतने मशीन हो चुके हैं कि असल अब वहम जैसा है. ये बातें कितनी बार कही गई हैं कि जीवन एक सेट अप के बाहर धीमा है, आप महसूस करते हैं कि आपने एक दिन बिताया, ज़िंदगी लंबी लगती है, आप जहां सुख और दुख दोनों अहसास लेकर चलते हैं. लेकिन अब सब एक दिन की तरह है. पिछला 10 साल कितनी तेज़ी से निकल गया. लेकिन सब अपना ही...
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