सावन की एक सुबह और नैनीताल की सैर
काठगोदाम से आंखों को मलते हुए हम दोनों बाहर आ गए, अभी दूर-दूर तक अंधेरा ही दिख रहा था.
पिछली बार जब अकेले आई थी तो अंधेरा ख़त्म होने का इंतज़ार किया था, तब बारिश भी बहुत तेज़ हो रही थी.
काठगोदाम प्यारा स्टेशन है, जहां से लगता है कि आप पहाड़ में आ गए और अब आगे की यात्रा बेहद सुखद होने वाली है. सुखद की अपनी व्याख्याएं हैं.
सड़क पार करते ही पहली जो बस आई, उसके कंडक्टर से पूछा कि बस नैनीताल जाएगी, उसके हां कहते ही चढ़ गई. बस में सीट तो है नहीं, मेरे इतना बोलने से पहले बस रवाना हो चुकी थी. फिर किसी तरह हम दोनों ने एडजस्ट किया.
बस में चढ़ते ही सब कुछ जैसे धीमा हो गया था, लोंगों के बात करने की रफ़्तार, जगहों के बदलने की रफ़्तार. कुछ धीमा हुआ भी था या ये मेरा वहम था. इतने मशीन हो चुके हैं कि असल अब वहम जैसा है.
ये बातें कितनी बार कही गई हैं कि जीवन एक सेट अप के बाहर धीमा है, आप महसूस करते हैं कि आपने एक दिन बिताया, ज़िंदगी लंबी लगती है, आप जहां सुख और दुख दोनों अहसास लेकर चलते हैं. लेकिन अब सब एक दिन की तरह है.
पिछला 10 साल कितनी तेज़ी से निकल गया. लेकिन सब अपना ही चुनाव है इसलिए दुख जैसा कुछ नहीं है. तो पिछली बार कुमायूं की तरफ़ स्टीफ़न अल्टर की किताब 'बिकमिंग अ माउंटेन' पढ़कर आई थी.
कंडक्टर के बगल में बैठा व्यक्ति इस महीने रिटायर हो रहा है. रिटायरमेंट के बाद कोई पार्टी होनी है, वो उसकी ही बातें कर रहे हैं. बीच-बीच में वो लोग कुमायूंनी में भी बातें करते हैं, मुझे समझ नहीं आती.
इधर ड्राइवर भाई साहब , क्या इंसान है यार! बस में भक्ति गाने बज रहे हैं, ऐसे गानें कि हर कोई झूम रहा है और वो साथ-साथ गा रहे हैं, एक्शन के साथ. अब धुंधलका लगभग छट सा गया है, पहाड़ दिखने लगे हैं और थोड़ा-थोड़ा जंगल भी.
एक जगह बस रुकती है चाय और पकौड़े के लिए. मैं ड्राइवर से पूछती हैं कि इधर तेंदुए दिखते हैं क्या? वो बस मुस्कुराते हैं जवाब में. पास से ही कहीं पानी की आवाज़ आ रही है, रह-रहकर जंगल में कोई पक्षी बोल जाता है, पानी छूने पर काफी ठंडा लगता है, मैं उससे चेहरा धोती हूं, सब कंचन हो गया हो जैसे ऐसा महसूस होता है.
फिर से सब बस मैं बैठते हैं, अब सुबह हो गई है, सूरज पहाड़ से कुछ उसी तरह निकल रहा है जैसे बचपन वाली ड्रॉइंग में निकलता था. वो ड्रॉइंग जिसमें सूरज पहाड़ों के बीच से निकलता था और कुछ चिड़िया उड़ रही होती थी. वो ड्रॉइंग हमारे सपनों की सुबह थी. अब तो विटामिन डी के इंजेक्शन लगाने पड़ रहे हैं.
अब लोग बसों से उतरने शुरू हुए हैं, अब चीर के पेड़ पास दिखने लगे थे. याद आया कि मैं चीर के पेड़ और देवदार के पेड़ के बीच अंतर नहीं कर पाती हूं, इस बार पक्का सीख के आऊंगी. चीर के पेड़ कुछ मौल से गए हैं, कहीं-कहीं ये कुछ ज़्यादा मौले लग रहे हैं, समझ में आ ही रहा था कि 2024 की गर्मियां बेहद परेशान करने वाली रही हैं, कुमायूं के जंगलों में इस साल आग खूब लगी. कहीं-कहीं अब जले हुए पेड़ भी दिख रहे हैं.
....पहाड़ों के पीछे वाला गांव
बस अब नैनीताल पहुंचने वाली है. गाने के साथ ड्राइवर साहब भक्ति भाव में रमे हुए हैं. कितना सुंदर होता है किसी इंसान को खुश देखना.फिर उनसे बात करने पर पता चला कि आज हड़ताल भी है, बसें कम ही चलेंगी.
रिटायरमेंट वाले अंकल कहते हैं, "देखिए सरकार है बाप और हम बच्चे हैं, कभी हम उनकी बातें मानते हैं और कभी उन्हें हमारी बात माननी पड़ती है. हम दोनों का संबंध ऐसे ही चल सकता है."
इस पर सब हंसते हैं और बस रुकती है. सामने निकलते ही कुत्तों का एक झुंड दिखता है, जिसकी किसी और झुंड से बस लड़ाई होने ही वाली है.
झबड़ा कुत्ता, बस जुबान पर यही नाम आया. झील और झील के बगल का रास्ता. आधी झील अंधेरे में और आधी पर पड़ती सूरज की किरणें. मैं पीठ पर एक बैग टांगे, जिन्स और शर्ट पहने सुबह में ऐसे लग रही थी जैसे मैं किसी और दुनिया से आई हूं. दुकानें अभी बंद ही थी.
नैनीताल झील |
नैनीताल में सुबह की सैर
कितने समय से सुबह पार्क में वॉक करने जाने का सोच रही थी लेकिन हो ही नहीं पा रहा था. आज बिना सोचे हुए ही हो गया. बिना सोचे कितनी सारी अच्छी चीजें जीवन में चुपचाप होती चली जाती हैं.
अब झील में मछलियां दिखनी शुरू होती हैं. हम दूर तक चलते चले गए. बीच-बीच में कोई-कोई आकर पूछ जा रहा था कि बोटिंग करेंगे. झील के एक छोड़ से दूसरे छोड़ पहुंच गए.
सामने एक बड़ा सा मैदान था, जहां लड़के और लड़कियां फुटबॉल खेल रहे थी, कुछ समय तक उन्हें खेलते देखा. कुछ झुंड में लड़कियां बाहर खड़ीं थीं, जिनका काम फ़ुटबॉल लाकर बीच में देना था. कुछ लड़कियां लड़कों से गोल के लिए लड़ रही थीं.
लड़कियों और लड़कों को एक साथ फ़ील्ड में देखना बहुत अच्छा लगा.
मेरे गांव में भी लड़कियां फ़ील्ड जाती हैं, जब पापा मुझे लेकर फ़ील्ड जाते थे तो मैं पापा को बहुत कोसती थी, मम्मी से आकर शिकायत करती थी कि वहां कोई लड़की नहीं होती और मुझे ये सब बिल्कुल पसंद नहीं है. पापा चाहते थे कि मैं खूब तेज़ दौड़ूं, वो कभी नहीं हो पाया.
मन में इस बात की भी खुशी हुई कि सुबह-सुबह चिनार का पेड़ भी दिखा. चिनार अमूमन सिर्फ़ कश्मीर में ही दिखता है. बैठकर खूब सारी बातों के बीच चाय पी गई.झील के इस किनारे पर काफी कूड़ा बिखरा हुआ था, फिर तय हुआ कि अब पैदल नहीं चला जा रहा.
वापसी में ई-रिक्शा दिखा तो हम बैठने ही वाले थे कि ई-रिक्शा वाले ने कहा कि वहां काउंटर है आप टिकट ले आओ. ये सिस्टम अच्छा लगा, ई-रिक्शा लाइन से लगी हुई हैं, उसका टिकट लीजिए और बारी आने पर वो रिक्शा रवाना होगी.
अब वापस बस स्टैंड पर हम लोग पहुंच गए. पूछने पर पता चला कि सीधे भीमताल की बस यहां से नहीं मिलेगी. पहले भवाली जाना होगा और फिर वहां से मिलेगी...तब तक पीयूष को पराठे की एक इंटरेस्टिंग सी दुकान दिखी, हमने सोचा कि मुंह-हाथ धोकर पहले पराठा खा लिया जाए फिर चलेंगे भवाली.
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