‘यह सब नींद में चलने वाले लोग हैं, अपनी गलतियां नहीं देख पाते हैं’

लोग गरीबी, अभाव, भुखमरी और दरिद्रता की बात करते हैं लेकिन काव्यात्मक प्रतीत होने वाले इन शब्दों में से कोई भी शब्द हमारी उस स्थिति को बयां नहीं करता है जिससे हम तब गुजरे थे। दुनिया की कोई भी भाषा हमारी उस स्थिति का बयान नहीं दर्ज कर सकती। उन दिनों हर क्षण बर्दाश्त के बाहर होने वाली पीड़ा को भला दुनिया की किस भाषा के किन शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है? मनोरंजन व्यापारी की किताब ‘ इंट्रोगेटिंग माय चंडाल लाइफ’ को पढ़ते समय मैंने कई बार सोचा कि मैं भूख के बारे में क्या जानती हूं, शायद कुछ नहीं। पहली बार ऐसा था कि मैं एक ऐसी किताब पढ़ रही थी जिसे सड़क पर चाय बनाने वाले किसी बच्चे, पटरी पर फेंकी गई रोटी को लेने के लिए कुत्ते के साथ दौड़ जाने वाले बच्चे, पुलिस के हाथों शारीरिक उत्पीड़न झेलने वाले बच्चे, एक-एक सप्ताह भूखे रहने वाले बच्चे और बड़े होकर नक्सली बन जाने वाले एक इंसान ने लिखा था। इस किताब को पढ़कर समझ में आया कि ऐसे बच्चों की एक अलग ही दुनिया होती है, उनकी पीड़ा, तकलीफ और इंसानी दर्द को भरे पेट वाले लोग कभी छू भी नहीं सकते हैं। वे एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जिसको हम रोज अपने करीब देखते हैं लेकिन स्वीकार नहीं करते हैं।देखकर भी अनदेखा करते हैं। हम ऐसी दुनिया को सबसे ज्यादा तो आजकल देख रहे हैं, जब देश का विभाजन होने के बाद से पहली बार अपने ही देश में इतनी बड़ी संख्या में लोग पलायन कर रहे हैं।
तस्वीर साभार: रॉयटर 
हम देख रहे हैं कि लोग ट्रेन में चढ़ते हैं और उनकी लाशें उतारी जाती है। हम देखते हैं कि हजारों किलोमीटर से पैदल चला व्यक्ति अपने घर के नजदीक दम तोड़ देता है। हम देखते हैं कि ट्रेन की चपेट में आने वाले मजदूरों के बारे में लोग पूछते हैं कि उन्हें पटरी पर सोने की क्या जरूरत थी? हम सब कुछ देखते हैं और फिर देखना भी ज्यादा देर तक बर्दाश्त नहीं होता है तो फिर नेताओं का ड्रामा देख लेते हैं, भारत-पाकिस्तान वाला मजाक देख लेते हैं क्योंकि ये सारी चीजें ही तो हमें अपनी नजरों में पापी होने से बचाती है और एक महान राष्ट्र और विश्व गुरू देश का निर्माण करती है। सोचती हूं कि क्या इन लोगों के बारे में जो हमारे जैसे लोग पोस्ट लिख रहे हैं, वह उनकी तकलीफों का एक सिरा भी पकड़ पाएंगे। कभी नहीं। हम सिर्फ अंदाजा लगा सकते हैं। स्थिति और कल्पना में बहुत का फर्क होता है। हाल ही में कश्मीर के एक दोस्त से बात हो रही थी तो बात आगे बढ़ी और काफी दुख भरी होती चली गईं, मैंने टाइप किया कि ‘आइ अंडरस्टैंड’ लेकिन मिटा दिया और मन ही मन सोचा कि मैं नहीं समझ सकती यार, कोई नहीं समझ सकता। अगर समझ सकते तो यह स्थिति ही नहीं होती। दुनिया में हमेशा ज्यादातर लोग मरने के लिए छोड़ दिए जाते हैं, बिना किसी दया या मानवता के। अभी जिन लोगों को हम सड़क पर पैदल देखते हैं और प्लेटफॉर्म पर जिनकी लाशों को देखते हैं, वे भी ऐसे ही लोग हैं। जो इस लोकतंत्र में सिर्फ नाखून पर एक नीला निशान लगवाने और भारत की जनसंख्या में गिने जाने के लिए सरकारी आंकड़ों में काम आते हैं। यह जो भारत ‘एक कल्याणकारी और लोकतांत्रिक देश’ है, यह सब हमारे जैसे लोगों को सुनने में बड़ा अच्छा लगता है और पुलिस जब एक मामूली प्राथमिकी तक नहीं दर्ज करती तब समझ में आता है कि यह जो लोकतंत्र और मानवाधिकार शब्द है न, वह किताब में है और जब हमारे फायदे के लिए होता है तो हम उसका इस्तेमाल करते हैं और जब हमारा हित प्रभावित होता है तो हम पूरे कश्मीर को आतंकवादी और पूरे दंतेवाड़ा को नक्सली बताकर अपनी नजर में ‘मेरा भारत महान’ कह देते हैं। किताब पढ़ते वक्त लगता था कि कितनी बार भूख की कहानी आएगी। जब लॉकडाउन लगा और लोगों ने जब मजदूरों को शहरों से जाते देखा तब बड़ी संख्या में ऐसे लोग थे जो यह कह रहे थे, ‘’अरे एक महीने के खाने का जुगाड़ तो होगा ही न, इतनी भी क्या बेचैनी, घर पर रहो और सुरक्षित रहो’। ये सब वैसे लोग हैं जिनके भविष्य का प्लान उनके मां-बाप जन्म से पहले ही कर देते हैं और जो बचा हुआ होता है, वह 20-21 साल तक वह खुद कर लेते हैं। लेकिन उन्हें नहीं पता कि योजना तब बनती है जब 10 दिन का खाना हो, जब हर दिन जीना ही संघर्ष हो तो योजना कौन बनाए! पॉवर्टी ट्रैप नाम की भी कोई चीज होती है इस दुनिया में, ये लोग उसमें फंसे हुए लोग हैं। मुझे जब इन सारी संस्थाओं, तंत्र और ऐसी बातें करने वाले लोगों पर गुस्सा आता है तो काफ्का की वह पंक्ति याद आ जाती है कि यह सब नींद में चलने वाले लोग हैं, अपनी गलतियां नहीं देख पाते हैं।शायद हमारे देश के शीर्ष नेता भी नींद में ही चल रहे हैं, उन्हें भी अपनी गलतियां नहीं दिख रही हैं और वह भारत को विश्व गुरु बनाने के खुमार में हैं, उन्हें सड़क पर चल रहे लोग कभी नहीं दिखेंगे…

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