क्या कभी ऐसा हो सकता है कि हम कुछ सोच ही न पाएं?
मैं सोचती हूं कि मुझे कितनी सारी चीजों से कितनी शिकायतें रहती थीं, आजकल वो शिकायतें पता नहीं कहां चल गई हैं. करने कुछ बैठती हूं और करने कुछ और लगती हूं. कहते हैं कि हर बात का एक मतलब होता है लेकिन आजकल बहुत सारे शब्द मिलकर भी कुछ मतलब नहीं निकाल पाते मेरे जेहन में. सुबह आंख खुलती है और ऐसा लगता है कि सबकुछ ठीक है. यह कोई सामान्य दिन है. फिर खबरें बनाना शुरू करती हूं और लगता है कि मैं एक ऐसी दुनिया में जी रही हूं जिसके बारे में मुझे कुछ नहीं पता.
सोचती हूं कि कोरोना ने कैसे बाकी सारी खबरों को बेमतलब कर दिया. वह सारी चीजें जो टॉप प्राइरटी में थीं, वह सब कहां चली गईं? मुझे याद नहीं आता कि मेरा कोई काम बहुत महत्वपूर्ण छूट रहा हो लेकिन अगर यही कोई सामान्य दिन होता तो मैं कह रही होती कि यह काम नहीं हुआ और वह काम नहीं हुआ.
आजकल बस एक ही काम नहीं हो पा रहा है, वह है कुछ भी सही दिशा में सोच पाना. सबकुछ उलझा-उलझा लगता है. मेरे पास इतना खाली वक्त है जब मैं लिख सकती हूं, खूब पढ़ सकती हूं और खूब फिल्में देख सकती हूं, लेकिन दिल नहीं कर रहा. शुरू में कुछ कोरियन रॉम-कॉम भी देखे लेकिन पसंद आने के बाद भी कुछ ऐसा रहता है जो गायब रहता है. वह जो गायब है, वही मेरी स्थिति है.
क्या कभी ऐसा हो सकता है कि हम कुछ सोच ही न पाएं मतलब कोई ख्याल ही न आए और स्वस्थ भी हों. क्या ऐसा संभव है? मुझे जब भी लगा कि मैं ऐसा कर ले जाऊंगी ठीक उसी क्षण ख्याल आया कि अरे मैं अभी तो कुछ सोच रही थी. मैं ब्लैंक हो जाना चाहती हूं. क्या दिमाग में वैसा क्षण आ सकता है? हालांकि मैंने कई बार यह शब्द इस्तेमाल किये हैं अपने जीवन में कि मैं उस वक्त पूरी ब्लैंक थी लेकिन वह संपूर्ण नहीं था.
मुझे यह दुनिया वास्तविक जान नहीं पड़ रही. मुझे पता है कि लाखों लोगों को भी यह दुनिया असली नहीं जान पड़ रही. याद नहीं आता जब पूरी दुनिया में मौत का इतना बड़ा खतरा सबके ऊपर हाल के समय में भी कभी रहा हो लेकिन इस दौरान दुनिया के नेताओं को देखकर मेरे मन में बार-बार एक ख्याल आता है कि क्या इन अंतरराष्ट्रीय नेताओं को अब भी इस बात से फर्क पड़ेगा कि बेकार में सीरिया, यमन और दुनिया के अन्य युद्धग्रस्त क्षेत्रों में लोग मारे जा रहे हैं? क्या अब भी इस दुनिया को शरणार्थी संकट के बारे में कुछ समझ आएगा? सीधे-सीधे शब्दों में कहूं तो क्या अब भी हम जान की कीमत समझ सकेंगे? क्या अब भी हम उन लोगों को समझ सकेंगे जो यूरोप में शरण की तलाश में खतरनाक समंदर की ओर निकल जाते हैं और भूमध्य सागर आते-आते जान बचाने के लिए कॉल करने लगते हैं.
पिछले कुछ महीनों में दिल्ली में ही इतना कुछ देख रही थी कि हर दिन ऐसा लग रहा था कि यही अब तक का सबसे बुरा दिन है. हर दिन कुछ न कुछ ऐसा होता था जिसके बारे में फेसबुक पर स्टेटस लिखने का मन करता था और कुछ लाइन लिखने के बाद उसे मिटा देने की इच्छा उससे ज्यादा तेज हो जाती थी.
मूल्यांकन करने बैठती हूं तो सोचती हूं कि क्या-क्या नहीं देख लिया, अब क्या देखना बाकी रहा है? इतना बड़ा पलायन भी तो देख लिया मैंने. चुपके-चुपके इंसानी ढांचा सड़क से चलता गया और ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ वाले हाथी की तरह शरीर आगे-आगे बढ़ता गया और उसके पीछे खाली जगह छूटती गई. क्या यह जगह कभी भरी जा सकेगी? वो लोग जो ‘गलियों के आवारा बेकार कुत्ते हैं’, उन्हें उनकी जगह फिर इस शासन और देश की महान जनता ने दिखा दी और फिर मुझे एक बार जॉर्ज ऑरवेल की वह पंक्ति याद दिला दी...कि All animals are equal, but some animals are more equal than others- यानी कि सभी जानवर बराबर होते हैं लेकिन कुछ जानवर बाकी जानवरों से ज्यादा बराबर होते हैं.
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें