पेशावर से कलकत्ता, जरनैली सड़क- जीटी रोड

"ज़िंदगी से जो निकल गया वो सुकून है और ज़िंदगी में जो दाख़िल हुआ वो तसदुद्द है, इज़्तिराब है और बेयक़ीनी है. तसदुद्द का ये हाल कि क्लशनिकोव राइफ़लें 100 रुपये रोज़ किराए पर मिल रही हैं, लोग अपने घरों में बम बना रहे हैं, घर की न चारदीवारी महफू़ज है न बाहर की खुली फ़जा. जो अंदर बैठे हैं, मुसल्ला डाकू उन्हें अंदर आकर लूट रहे हैं, जो बाहर निकले हैं, वो बाहर लूटे जा रहे हैं, लोग अपनी बात दलील से नहीं मनवा रहे हैं बल्कि कुव्वत के बल पर ज़लील कर के मनवा रहे हैं, हर फ़रीक़ कहता है बस मैं हक़ पर हूं, चुनाचे वो मरने-मारने पर नहीं बल्कि सिर्फ़ मारने पर तुला हुआ है. अब फ़ैसला पंचायतों और चौपालों में नहीं होता अब जो ताकतवर है, वो चाहता है कि शाम के झगड़े का रात के अंधेरे में ही तस्फ़िया हो रहे. इज़्तिराब का ये हाल है कि जैसे सब्र का यारा जाता रहा, जैसे अच्छे दिनों के इंतज़ार की सख़्त जाती रही. इंसान का जी तो हमेशा चाहता रहा कि यूं हो और यूं हो लेकिन आज का इंसान चाहता है कि यूं हो और अभी हो.  ऐसा हो और रात भर में हो जाए. अगली सुबह नमूदार हो तो दौलत के अंबार लगे हों...जो भी होना है, अभी हो जाए...अभी इसी वक़्त और फ़ौरन. 

ज़ाहिर है कि ख़्वाहिशों की रफ़्तार और होती है, फितरत की चाल और. चुनाचे आज की ज़िंदगी से फितरत निकल गई है और उसकी जगह रिश्वत आ गई है. 

ये इज़्तिराब क्यों है? ये बेचैनी क्यों है? जवाब इसका सीधा-सादा है. कल की किसी को ख़बर नहीं इसलिए ज़ेहन अंदर से कचोटे ले रहा है कि जो कुछ करना है अभी कर लो...

मजहब की ऐसी बाबस्तगी, जिसमें शिद्दत है और जिसमें रवादारी नहीं. यहां से वहां तक मजहब की एक नई लहर उठी है, बेशुमार मंदिर बन रहे हैं...मस्जिद एयरकंडीशन कर के वॉल टू वॉल कालीन डाले जा रहे हैं.

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40 साल से इन बुनियादी सवालों के जवाब खोजे जा रहे हैं लेकिन नहीं मिले, कहीं हिंदी-हिंदी का नारा है तो कहीं उर्दू-उर्दू का मगर बच्चे के मां-बाप को न हिंदी की फ़िक्र है और न उर्दू की परवाह, उनका बस एक ही ख़्वाब है कि बच्चा किसी तरह बस अंग्रेजी पढ़ जाए, ज़िंदगी के सारे इंटरव्यू, सारे टेस्ट और सारी अच्छी मुलाज़मतें इसी एक अंग्रेजी के दम से है, जिसकी अंग्रेजी कमजोर रह गई, उसके मुकद्दर में फाके लिखे हैं. 

जरनैली सड़क की ये पूरी गुफ़्तुगू कानपुर के बच्चे क़ाएम रज़ा की बातचीत से ख़त्म हो रही है, मैंने क़ाएम रज़ा से पूछा 

तुम स्कूल जाते हो? – जी नहीं

क्या करते हो? – काम सीखते हैं

क्या काम सीखते हो? – स्कूटर का

मरम्मत करते हो? – जी


तुम्हें कब शुरू होंगे मिलने पैसे? – जब दें

कितने पैसे देंगे? – जित्ते दें

कब देंगे? – जब दें


ये बच्चा जो जवान होकर 21वीं सदी में दाख़िल होगा, इसको बिल्कुल मालूम नहीं कि इसका मुस्तक़बिल क्या होगा."


पेशावर से कलकत्ता, जरनैली सड़क- जीटी रोड

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ये पॉडकास्ट ख़त्म हो गया. दिसंबर में इसे सुनना शुरू किया था और अब मॉनसून आ गया. काफ़ी बड़ा भी था.

पेशावर से शुरू हुआ ये पॉडकास्ट न जाने कितने नामों, नदियों, गलियों, महलों, बागों, यूनिवर्सिटीज़ और क़िलों से होकर गुज़रा-और पेशावर, रावलपिंडी, झेलम, गुजरांवाला, लाहौर, अंबाला, पानीपत, दिल्ली, आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, बनारस, सासाराम, औरंगाबाद, शेरघाटी होते हुए कलकत्ते में ख़त्म हो गया.

मन थोड़ा भर-सा गया है. सिल्क रूट को खोजते-खोजते मुझे बीबीसी उर्दू की जरनैली सड़क मिली थी- जब रज़ा अली आबिदी साहब का शेर दरिया सुन चुकी थी. वो भी क्या शानदार पॉडकास्ट है!

कितनी ही साफ़ग़ोई, सीधे-सादे लोगों के बयान, ऐसे आम से सवाल, जिन्हें जानकर उस शहर की पूरी हक़ीक़त मालूम हो जाती है.

ख़ैर, मन भर-सा गया है-और अब शेरशाह सूरी की याद में आम खाया जाएगा, वैसे चौसा तो नहीं मिलेगा लेकिन कोई और सही...

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