विचारधारा की तलाश में आप


जनतंत्र में जनता कभी महज तमाशबीन रहती है तो कभी सर्वशक्तिमान सत्ता।
जिससे दुनिया के हर तानाशाह व्यक्तित्व को खतरा रहता है।इसके गुस्से की गुंज से सत्ता की नींव कई बार हिल चुकी है।चाहे वह इंदिरा गांधी की सरकार हो या शीला दीक्षित की।मगर दिल्ली के सियासत की गर्मा-गर्मी में मैदान में दोनों ही सरकारें जनता द्वारा चुनी हुई हैँ।यह समय जनता के लिए काफी परेशानी वाला है।उन्हें यह सोचना है कि किसकी राह उनके सुख-दुख से गुजरती है और किसकी नहीं।दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने आंशिक मांगों को मान लिए जाने के कारण धरना खत्म कर दिया है।मगर यहाँ प्रश्न बड़े परिमाप का प्रतित हो रहा है कि दिल्ली पुलिस को केंद्र के हाथ में रखना चाहिए  या दिल्ली  सरकार के अंदर। एक मुख्यमंत्री होने के नाते अरविंद केजरीवाल की मांग जायज है कि सुरक्षा व्यवस्था की जवाबदेही के लिए जनता उनकी ओर देख रही है मगर एक प्रश्न यह भी उठता है कि क्या दिल्ली के विधी मंत्री सोमनाथ भारती को अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ देर रात किसी महिला के घर बिना किसी प्रशासनिक नोटिस के घुस कर उसे प्रताड़ित करना चाहिए था।इसका जवाब अरविंद केजरीवाल देना नहीं चाहते हैं। उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं से इस मामले में जरा भी सख्ती नहीं बरती उल्टे उनके साथ खड़े नजर आए।यह चरित्र तो जनता सालों से राष्ट्रीय और क्षेत्रिय पार्टियों का देख रही है तो फिर केजरीवाल उनसे अलग कैसे हो गए?
आम आदमी पार्टी के क्रियाकलापों की देखा-देखी कई पार्टियों ने अपने छवि में परिवर्तन किया है और लगातार परिवर्तित करते जा रहे हैं।और इससे इतर यह पार्टी भी परिवर्तित होती जा रही है।पार्टी कार्यकर्ता कुमार विश्वास ने जिस तरह से महिलाओं की शक्लो –सूरत के उपर अभद्र टिप्पणी की है वह सोचनीय है।केजरीवाल को फिलहाल अपनी पार्टी के उपर अनुशासनात्मक रूप से ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है। पार्टी संगठन में सुराख और मनभेद दिखने लगा हैं।उनकी ही पार्टी का विधायक उन्हें ही तानाशाह कहता है।उन्हें अपनी आम आदमी की परिभाषा को भी पुष्ट करने की जरूरत है ताकि असली आम आदमी यह न सोच ले कि यहाँ भी उसके मांग  ठंढ़ी कब्र में दब कर रह जाएगी। जब शोषक और शोषित दोनों ही आम आदमी बन जाएंगे तो आम आदमी के अस्तित्व पर ही एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लग जाएगा।आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए पार्टी ने जोर-शोर से लोगों को जुटाने का काम शुरू कर दिया है। जिसके कारण उसका ध्यान दिल्ली से भटक रहा है। इसी जल्दबाजी के कारण उसने खुद को भी भ्रम के दायरा में खड़ा कर लिया है।
           जनता कभी बेवकूफ नहीं रही है।उसके पास विक्लपों की कमी हो गई है जिसका फायदा राजनीतिक तबका उठा रहे हैं।आम आदमी पार्टी का सरकार में आना भी इसी आक्रोश का नतीजा है।इस पार्टी को अभी परखा जाना बाकि है।इसे अपने समय का ज्ञान होना जरूरी है कि जनता के इस फैसले को यह कब तक वहन कर पाती है।यह समय पार्टी के आत्म मंथन का समय है।उनके मंत्रियों को यह समझने की जरूरत है कि वह समाज के ठेकेदार नहीं बल्कि सेवक हैं।


            

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