अपने हक को तलाशता बचपन

जिंदगी के कुछ वक्त ऐसे होते हैं जिनको जीने की ख्वाहिश मानव मन के अंदर जीवन पर्यन्त बनी रहती है।कुछ ऐसा ही यादगार और रोचक वक्त बचपन का होता है जिसकी यादें हमेशा उर्जा प्रदान करती हैं। उस वक्त बेफिक्री का ऐसा आलम होता है कि दिन और रात का कुछ पता ही नहीं चलता। बेखौफ हंसने और रोने का नाम है बचपन,रात में देखे गए सपने को सच समझकर जीने का नाम है बचपन।इस समय में पाई गई शिक्षा की नींव ही हमारे कल को बेहतर बना पाती है।मगर अफसोस! सबका बचपन कहां चहकती हुई मुस्कानों के बीच बीत पाता है वह तो पेट की भूख से शुरू होकर भूख तक ही खत्म हो जाता है।गरीबी आदमी के बचपन,जवानी और बुढ़ापे में बिल्कुल भी फर्क नहीं करती है।
                                आजादपुर मेट्रो स्टेशन के बाहर पानी बेचनेवाला ग्यारह वर्षीय सोहन बिहार के नवादा जिले का रहनेवाला है। बड़ी मासूमियत के साथ उसने बताया कि वह अपने मुहबोले चाचा के झूठ का शिकार बना हैदो साल पहले मेरे चाचा ने कहा था कि दिल्ली चलो वहीं पढाउंगा तब से आज तक घर नहीं गया हूँ।उसकी बातों से ऐसा लगता था कि उसके मां-बाप को भी इस हकीकत का पता था मगर गरीबी और अशिक्षा की वजह से उन्होंने सबकुछ जानते हुए भी इसे अपना मुकद्दर समझ इसे स्वीकार कर लिया था।
                                      यह सिर्फ सोहन की कहानी नहीं है,भारत में लाखों बच्चों का बचपन इसी तरह गरीबी और बदहाली में बीतता है। आज के शहरीकरण की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि वह मासूम जज्बातों के कब्र पर खड़ी होती है।हमारे देश में शिक्षा का अधिकार,मिड डे मील जैसी योजनाओं को लागू हुए कई वर्ष बीत चुके हैं।मगर उसका हाल क्या है?यह सबको पता है।महज योजना और नियम इस बात की गारंटी बिल्कुल नहीं देते कि वह सफल हो जाएगी।सफलता प्रबंधन पर निर्भर करती है और प्रबंधन का नजारा यह है कि मिड डे मील के कारण सैकड़ों बच्चे अपनी जान से हाथ धो चुके हैं।

                 उन्हें संपूर्ण आहार के बदले ऐसा आहार दिया जाता है जिसे खाकर एक स्वस्थ बच्चा  भी बीमार पड़ जाए।इन स्कूलों में ज्यादातर वही बच्चे पढ़ते हैं जिनके मां-पिता के पास किसी अच्छे स्कूल में पढ़ाने की हैसियत नहीं रहती है।सरकारी स्कूलों में प्राय: कक्षाएं नहीं लगती है या शिक्षकों का अनुपात हमेशा बच्चों की संख्या की अपेक्षा कम रहता है।भारत के सारे बच्चों को शिक्षा देने के लिए ही शिक्षा का अधिकार लाया गया था मगर उसका क्रियान्वयन अभी तक नहीं हो सका।गांवों की बात छोड़ भी दे तो शहरों में अच्छे इलाकों में आपको वो बच्चे भीख मांगते मिल जाएंगे जिन्हें अब स्ट्रीट बच्चा कहा जाता है।दिल्ली में बड़े से बड़े लोग आते हैं मगर जब यहाँ आज तक इस समस्या से निजात नहीं पाई जा सकी तो गांवों का कौन देखने वाला है। बाल अपराध में लगातार इजाफा होता जा रहा है। कुछ लोग कानून में भी सुधार की मांग कर रहें हैं ताकि बाल अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाए।अमेरिका में बाल अपराध को लेकर सख्त नियम बनाए गए थे मगर उसका परिणाम अपराध कम होने के बजाए बढ़ना साबित हो गया। बाल अपराध को रोकने के लिए बच्चों मे बढ़ रही नशा के लत को भी रोकना पड़ेगा।किसी भी स्कूल के पास नियमत:शराब की दुकान नहीं होनी चाहिए मगर इसका जरा सा भी पालन नहीं किया जा रहा है।खुलेआम स्कूल के सामने शराब और सिगरेट की बिक्री की जाती है।कहीं न कहीं नशे की आदत के कारण बाल अपराध में लगातार इजाफा हो रहा है।इन सब बुराइयों को रोकने के लिए सबसे ज्यादा किसी को मजबूत होने की जरूरत है तो वह हमारा समाज और समाजिक संगठन हैं। बच्चों की मानसिकता को समझ कर उनकी खामियों और खुबियों के बारे में खुलापन अपनाना चाहिए ताकि वह इन सारी बुुराईयों से दूर रह सके। 
        जब बच्चों को उनका हक मिल पाएगा तब ही जम्हूरियत में बनाए गए कानून सफल हो पाएंगे अन्यथा बड़े होकर उनके लिए जम्हूरियत और कानून जैसे शब्द कभी कोई माने नहीं रख पाएंगें क्योंकि शब्द तभी माने रखते हैं जब उसका उपयोग किया जाए वरना वह शब्द अपनी प्रासंगिकता खोते-खोते कभी विलुप्त भी हो जाता है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

नसीर: कम संवाद वाली यह फिल्म हमें आइना दिखाकर स्तब्ध कर देती है...

सावन की एक सुबह और नैनीताल की सैर

‘यह सब नींद में चलने वाले लोग हैं, अपनी गलतियां नहीं देख पाते हैं’