पत्रकारिता में महिलाएं

हाल ही में पत्रकारिता की छात्रा होने के नाते एक चर्चा में जाने का मौका मिला जिसमें देश भर से महिला पत्रकार आईं थी। चर्चा का विषय था “पत्रकारिता में महिलाएँ’’ यह विषय ही अपने आप में आधी आबादी का प्रतिनिधित्व कर रही था। तमाम मशहूर महिला पत्रकारों को सुनकर ऐसा लगा कि समय अपनी रफ्तार से चलता है जिसमें आए दिन परिवर्तन देखने को मिलता है। एक महिला होने के नाते आज भी पत्रकारिता के कुछ प्रश्न ठीक उसी तरह खड़े हैं जो पिछले दशकों में उन बहादुर महिलाओं के सामने थे। जिन्होंने पत्रकारिता को सिर्फ पुरुषों की जागीर न रहने दिया। उन्होंने पत्रकारिता को सिर्फ एक पेशे के रूप में ही नहीं अपनाया बल्कि उस सोच को एक खुली चुनौती दी जिसमें पितृसत्ता यह मानती है कि महिलाओं के पास देह के अलावा और है क्या? उन सारी महिलाओं की उर्जा को देख मुझ जैसी नई पौध को एक नई रोशनी,नई उमंग मिली कि जब उस कठिन दौर में ये सभी मजबूत पितृसत्ता के ढाचे को तोड़कर जगह बना सकती हैं तो फिर आज के आधुनिक दौर में हम क्यों नहीं?
इस चर्चा में कुछ तीखे प्रश्नों से रूबरू होने का मौका मिला कि आखिर क्यों ऐसे पदों पर ज्यादातर पुरुष ही काबिज रहते हैं जहाँ पर एक निर्णय लेने की स्थिति होती है। किसी एक पत्रकार ने मौजूदा हाल के बारे में कहा कि कल भी एक ही मृणाल पांडे थी और आज भी एक ही मृणाल पांडे हैं। आज भी पत्रकारिता में महिलाएं बड़ी हस्ताक्षर नहीं बन पा रही हैं। आखिर महिलाएं कहां गुम हो जाती हैं।इस सवाल का जवाब देना आसान नहीं है क्योंकि एक महिला को न केवल बाहर अपने
अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ता है बल्कि घरों में भी उन्हें अनवरत संघर्ष से गुजरना पड़ता है।बहुत सारी पत्रकारों ने एक समान बात कही कि न्यूज रुम के ढाचे पर पितृसत्ता व्यवस्था की छाप साफ देखी जा सकती है।
पुऱुष पत्रकारों की तुलना में महिला पत्रकारों को कमतर करके आंका जाता है।ज्यादातर मामलों में उन्हें कोई भी ऐसी रिपोर्ट लाने के लिए नहीं भेजा जाता है जो विवादास्पद हो। जीएमएनपी रिपोर्ट के अनुसार केवल 37 प्रतिशत रिपोर्टिंग महिलाओं के दवारा की जाती है। उनके सामने रात में काम करने की समस्या अपनी जगह उसी तरह खड़ी है।
बात यदि हम मीडिया के अंदर महिलाओं को दी जा रही कवरेज की करें तो यहाँ भी आँकड़ा कुछ और ही है।मीडिया के अंदर रिपोर्टिंग के दौरान महिलाओं से संदर्भित दो ही खबरें ज्यादा चर्चित रहती है एक सफल ग्लैमरस महिलाओं की और दूसरी उन पीड़ित महिलाओं की जिनकी खबर को हमेशा मसालेदार बनाकर पेश किया जाता है।शेष महिलाएं तो कम ही चर्चा का विषय हो पाती हैं। आज भी अल्पसंख्यक और आदीवासी महिलाओं का जीवन मीडिया के पहुंच से बाहर है। मीडिया सभी वर्गों और समाजों का आइना होती है यदि इसमें ही इतना भेदभाव किया जाएगा तो फिर बाकि संगठनों से क्या उम्मीद की जाए?

महिलाओं पर हो रहे अत्याचार लगातार बढते जा रहे हैं।इस सूचना क्रांति के दौर में आज जब जागरूकता बढी है तो अधिक से अधिक एफ आइ आर दर्ज हो रहे हैं। अब धीरे –धीरे ही सही वह अपने अधिकारों के लिए लड़ रही हैं।

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