वोटों की राजनीति में वैमनस्यता कतई स्वीकार नहीं
मन के अंदर का वह प्रेम
कितना धुंधला और कितना एकाकी नजर आने लगा है। उसकी तन्हाई में एक अजीब सा एहसास
शामिल हो गया है जिससे दूर भागने का मन करता है। इतनी दूर जहाँ पर जिंदगी एक चराग
बन जाए और उजाले महबूब। मगर प्रेम को बाजार ने यूं बेचना शुरू कर दिया जिससे महसूस
होने लगा कि सीसे वाली उस दुकान से कोई नकली फूल खरीद लूं तो प्रेम मिल जाएगा मगर
यहाँ भी मेरा प्रेम ठगा ही गया।
जब कभी
सोचती हूं कि यदि यह सच होता तो पूरी दुनिया को क्यों न दुकान बना दिया जाए जहाँ
पर सब कुछ प्रेम से होता। तब न सीरिया का कत्लेमाल सामने आता न ईरान की वह जमीन जो
यह भूल चुकी है कि कभी यहाँ पर शांति और प्रेम घर में बसा करती थी।
यहाँ तक कि भारत में क्षेत्रवाद के जहर के कारण कोई छात्र पीटाई से नहीं दम तोड़
देता।बस बाजार प्रेम का एक बिंब खड़ा कर रहा है जहां पर प्रेम की परछाई भी आधी
अधूरी अवस्था में मानव हृद्यों के साथ खेला करती है। यह छाया हमेशा शहरों के उजाले
में चक्कर लगाती है।आजकल बाजार का यह कदम शहरों तक नहीं बल्कि गाँवों के अंदर भी
बड़े तेजी से बढ़ रहा है जहाँ पर न तो जीने योग्य साधन मौजूद हैं और न हीं शिक्षा
का अलख। भारत की शिक्षा व्यवस्था आज एक गरीब को कागजी शिक्षा तो जरूर दे रही है
मगर वह शिक्षा गायब है जहां से पढ़कर वह बच्चा भी उस विश्व का हिस्सा हो
सकें जो अब बहुत ही आधुनिक हो गया है। बहुत सी राज्य सरकारों ने आधुनिक
शिक्षा लागू करने के लिए स्कूलों में कंप्युटर शिक्षा को अनिवार्य कर दिया जो एक
काबिले तारीफ कदम था। स्कूलों में कंप्युटर तो आए मगर सिर्फ देखने के लिए। कभी
बिजली के नाम पर तो कभी कंप्युटर शिक्षक न होने के बहाने से विद्यार्थियों को इसका
लाभ नहीं मिल पा रहा है। और यह विद्यार्थी जब शहरों की ओर रूख करते हैं तो सिवाय
गुस्से और इस एहसास के सिवा कुछ नहीं रहता कि आखिर इसमें हमारी क्या गलती है?
सरकार का
प्रबंधन इतने लचर स्थिति में है कि लोगों का गुस्सा और आक्रोश दिन पर दिन
बढ़ता जा रहा है। यह हालत सिर्फ भारत की नहीं बल्कि पूरा विश्व अशांति के काल से
गुजर रहा है जहाँ पर रोज मानवता नीलाम हो रही है। मौतों का कारवा लगातार बढ़ता जा
रहा है। संसाधन की लूट में बड़े घराने लोगों को आपस में लड़ाकर मूक दर्शका
का किरदार निभा रहे हैं।मगर हैरत की बात तो यह है कि लोग अपनी पीड़ा को खुद नहीं
समझ रहे हैं वे बस कुछ हासिल करने के लिेए दौर रहे हैं जिसका सपना उन्हें बाजार दिखा
रहा है। आज भी असली लड़ाई तो बस भूख से भूख तक का है। जिसकी भरपाई का सपना रोज रात
को उसके भूखे सोने के साथ खत्म हो जाता है और बचता है तो कंकाल के ढ़ाचे का वह
सपना जिस बाजार कौड़ी की भाव में भी खरीदना नहीं चाहता है।
हर बार
बसंत के साथ वृक्षों में नई कोंपले खिलती प्रतित होती है और एक नई ताजगी
दुनिया में छा जाती है और मनुष्य यह सोचने के लिए प्रेरित होता है कि अब फूल
खिलेंगें और जिंदगी का एक नया अध्याया शुरू होगा। फरवरी का यह महीना भी कुछ इसी
एहसास से भारतीय जनता को तसल्ली देती नजर आती है कि कुछ न कुछ बदलाव के आसार तो
दिख रहे हैं। लोगों में अब सांप्रदायिकता या क्षेत्रवाद के विरोध में गुस्सा तेज
हो रहा है और वे अब लागातार बेरोजगारी और भूखमरी जैसी समस्या से निजात पाने की
कोशिश कर रहे हैं इसलिए भारत के राजनीतिक लोगों को भी यह समझना चाहिए कि एक अच्छा
नेता वही होता है जो राह दिखाता हो,राह चलता
हो न कि जनता को दिगभ्रमित करता हो। भारतीय राजनीति की हालत अभी दिशाहीन राजनीति
की तरह है और उस पर मीडिया और बजारवाद का प्रभाव इतना ज्यादा है कि अभी वह यहाँ के
लोगों के मुख्य समस्या के बारे में चिल्लाती तो जरूर है पर मगर उस पर चिंतन बहुत
ही कम करती है। उन्हें यह सोचना होगा कि वोट बैंक की राजनीति करने के लिए वह
वैमनस्यता नहीं बढ़ावे जिससे भारतीय धरती का चेहरा कुरूप होता है।
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