कुछ अनछुए सवाल जोहरा के बाद


बहुत कम कलाकार ऐसे होते हैं जिन्हें ताउम्र उनके दर्शक अपने दिलों के तख्त पर बिठा कर रखते हैं ,जोहरा सहगल भी एक ऐसी ही जीवंत कलाकार थीं। जिन्होंने अपने अभिनय के मिजाज से बाबस्ता ही लोगों की नजर अपनी ओर खींची। उनकी तमाम जिंदगी संघर्षों में बीती है। उनके जाने के बाद एक सवाल पैदा होना लाजिमी है कि एक बूढ़ी महिला कलाकार अपने स्वास्थ्य संबंधी कारणों और अपनी उम्र को देखते हुए एक आखिरी मांग यह रखती हो कि उसे पहली ग्राउंड फ्लोर पर घर दिया जाए ताकि उन्हें जीवन जीने में आसानी हो मगर सरकार को उन्हें घर देने में इतना वक्त लग गया कि तब तक जोहरा ने अपना घर किसी और दुनिया में तलाश लिया। यह घटना किसी पहले कलाकार के साथ नहीं हुआ है बल्कि इससे पहले भी शमसाद बेगम का उदाहरण कला जगत के सामने है कि लोकप्रियता की सीढ़ी से चलकर एक कलाकार फिर किस अंधेरे में गुम हो जाता है जहां से उसकी जिंदगी महज अंधरे का हमसफर हो जाती है। शमसाद बेगम के पास अपना घर तक रहने के लिए नहीं था और उनका आखिरी वक्त काफी गरीबी में गुजरा। शमसाद बेगम की खनकती आवाज के सभी दीवानें थे मगर उनकी आह की आवाज कभी बहरी दुनिया ने नहीं सुनी।
ऐसा प्राय देखा गया है कि यह स्थिति प्राय उन कलाकारों की होती है जो अपनी जिंदगी में दौलत से ज्यादा अपने काम और अपने स्वाभिमान को अहमियत देते हैं। भारत में कलाकारों के साथ-साथ हिंदी और क्षेत्रीय भाषा के लेखकों की भी स्थिति यही है। साहित्य के क्षेत्र में दिलचस्पी रखने वाले लोगों को यह पता होगा कि अंत समय में जानकी वल्लभ शास्त्री जैसे लेखकों का हश्र क्या हुआ था? सरकार महज पद्म श्री और पद्म भूषण देकर यह समझ बैठती है कि उसने लेखक या कलाकार के उपर नेमत बरत दी है। हालांकि ऐसे पुरूष्कार देने के पीछे कैसी राजनीति की जाती है,सबको पता है। 
प्राय सारे लेखकों या गांव या उनका घर जिसे एक धरोहर होना चाहिए था उपेक्षा का शिकार बना हुआ है। यहां एक उदाहरण राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के गांव का देना चाहूंगी जिनकी जयन्ति हर साल उनके गांव वाले खुद आर्थिक चंदा कर मनाते हैं। वहां सरकार द्वारा कोई मदद नहीं दी जाती है न तो उनका स्मारक बन सका और न ही कार्यक्रम के लिए कोई सभागार। जो सभागार बना है वह किसी कार्यक्रम के उपयुक्त साबित इसलिए नहीं हो पा रहा है कि उसमें आवाज गुंजने जैसी समस्या व्याप्त है। यह हाल सिर्फ सिमरिया का नहीं बल्कि तमाम हिंदी पट्टी के साहित्यकारों के गांवो का है।
 हिंदी साहित्य सम्मेलन में लाखों रूपया खर्च करने वाले कभी भी इस तरह की समस्या को वहां नहीं उठाते हैं। लेखकों की समस्या तो दूर की बात वहां हिन्दी को ही दर्जा नहीं दिया जाता है। अभी के समय की सबसे बुरी बात यह है कि हर बहस और विमर्श बंद कमरों में पैदा होता है और वहीं पर खत्म हो जाता है। जब तक हाशिये पर आ रहे लोगों की समस्याओं को उनके भाषा में नहीं समझाया जाएगा,नहीं बताया जाएगा तब तक बंद कमरे के विमर्श करते रहिए कोई फायदा नहीं होने वाला।
  

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