ए जिंदगी मैं तेरी बारिश की हर बूंद में जीना चाहती हूं, जी भर के भींगना चाहती हूं,नाचना चाहती हूं,गिरना चाहती हूंं और न जाने क्या-क्या करना चाहती हुं? मगर तेरी ये कड़कती बिजलियाँ रोकती है मुझे,मुझमें डर पैदा करती है,कहती है कि तू घर में कैद रह वहाँ तेरे लिए सारी सुविधाएं मौजूद है,वहां तुझे बिल्कुल भी तकलीफ नहीं होगी। तेरी जिंदगी इससे बाहर नहीं है ,यह एक घर से शुरू होकर दूसरे किसी बंद आंगन में खत्म होगी। वह घर भी तेरा नहीं होगा वहाँ तू महज एक सामान की तरह रहेगी। जब तक खामोश किसी कोने में पड़ी रहेगी तब तक तो रहेगी मगर जैसे ही तेरे लब ने आवाज निकाली कि तू बाहर फेंक दी जाएगी।
नसीर: कम संवाद वाली यह फिल्म हमें आइना दिखाकर स्तब्ध कर देती है...
अजान हो चुका है, सुबह के छह बज रहे हैं, ताज अपने किचन में खाना बना रही है, इकबाल को उठाया जा रहा है… घड़ी की टिक-टिक जारी है. कुछ इस तरह से ‘नसीर’ का पहला दृश्य शुरू होता है। एक आम जिंदगी में पैसे की तंगी और उधारी। हजारों घरों की तरह घर, दीवारों का चूना झरता हुआ और दरारें निकली हुईं। नसीर अपनी पत्नी को बस स्टैंड पर छोड़ने के लिए जाता हुआ और चलते कदमों की आवाज के साथ-साथ पीछे से मस्जिद की लाउडस्पीकर की आवाज। पति-पत्नी संकरी गलियों से आगे बढ़ते हैं. लाउडस्पीकर से आवाज आती है, ‘’ छोटी-छोटी बातों पर विवाद हो रहा है, टोपी पहने या न पहने इस पर भी।’’ संकरी गलियों से निकल कर पति-पत्नी मुख्य सड़क पर आते हैं. बाजार में गणेश भगवान की मूर्तियां रखी हुई हैं, पीछे से लाउडस्पीकर से आवाज आ रही है कि भारत और तमिलनाडु प्राचीन समय में कैसा था? बातें हो रही हैं कि राक्षसी ताकतें आगे बढ़ रही हैं लेकिन धर्म इसे खत्म करने में मदद करेगा। बात देश को किस-किस से खतरा है पर आती है? किसी का नाम नहीं लिया जाता लेकिन इशारा स्पष्ट है। कुछ इस तरह से तमिल फिल्म 'नसीर' की शुरुआत होती है. यह फिल्म ऑनल
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