मासिक धर्म और शारीरिक अक्षमता का गणित!

IMAGE:KFAYAZ AHMAD
केरल में हाल ही में एक मीडिया संगठन ने मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को एक दिन की छुट्टी देने की घोषणा की है। जब मैं यह खबर टाइप कर रही थी तो एक बार को मेरे मन में आया कि सारे संस्थानों को एक बार इस विषय पर जरूर गौर फरमाना चाहिए और इस दौरान कम से कम एक दिन की छुट्टी तो जरूर देनी चाहिए। मेरे मन में तब बिल्कुल भी यह ख्याल नहीं आया था कि इस छुट्टी को लोग महिला बनाम पुरुष बना देंगे लेकिन मैं गलत थी, लोगों ने इसे न सिर्फ महिला बनाम पुरुष बनाया बल्कि औरत की शारीरिक क्षमता पर भी सवाल खड़े करने शुरू कर दिए। छुट्टी न देने के पीछे ऐसे लोगों का तर्क है कि इससे समाज में यह संदेश जाएगा कि औरत शारिरिक रूप से कमजोर होती है। यह तर्क देने वाले यहीं नहीं रूके उन्होंने चलते-चलते यह भी कह दिया कि इस छुट्टी का गलत फायदा भी उठाया जा सकता है।

पहली बात तो यह है कि मासिक धर्म का औरत की शारीरिक क्षमता से क्या लेना-देना हो सकता है, इसके बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है और जिनको वाकई में समझना होगा, वह पढ़ लेंगे। हां, और अगर आपको अभी भी लगता है कि औरत नियमित रूप से अपनी शारीरिक क्षमता और मानसिक क्षमता की अग्निपरीक्षा देती रहे तो फिर रहने दीजिए। औरतों को अब अपनी शारीरिक और मानसिक क्षमता को लेकर कुछ भी साबित करने की जरूरत नहीं रह गई है इसलिए यह चुनौती देना बंद कर दीजिए कि तुम यह काम नहीं कर सकती और वह काम नहीं कर सकती। यह समय अब बीत चुका है।

एक मीडिया संगठन में काम करते हुए या दूसरे क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं, स्कूल जाने वाली लड़कियों, घर में मम्मी-चाची से बात करते हुए यह पता है कि मासिक धर्म के दौरान हर स्त्री का शरीर अलग-अलग तरीके से काम करता है। हर स्त्री के पास इसको लेकर अलग-अलग तरह की परेशानियां हैं। उनमें से कई ऐसी भी होती हैं, जिन्हें इससे संबंधित कोई परेशानी नहीं होती। अगर किसी को इससे समस्या होती है तो संस्थान का दायित्व होता है कि वह अपने कर्मचारियों की शारीरिक स्थिति का ख्याल रखे, इसी दायित्व बोध की वजह से कुछ संस्थान मासिक धर्म के दिनों में एक दिन की छुट्टी की पेशकश लेकर आ रहे हैं और इसका विरोध करने के बजाय इसका स्वागत होना चाहिए। यही नहीं, कई संस्थान ऐसे हैं जहां गर्भवती महिलाओं के लिए कोई ऐसी जगह नहीं होती है, जहां जाकर वह थोड़ी देर आराम कर सकें। इसके अलावा जिन संगठनों में महिलाओं को इस तरह की सुविधा दी जाती है, वहां इसे महिला बनाम पुरुष कराकर बंद कर दिया जाता है। मेरा अपना अनुभव ऐसा है कि मैंने इस तरह के कक्ष को कुछ पुरुषों के विरोध की वजह से बंद होते देखा है।

साल 2014 में दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित ‘विमन इन मीडिया’ सेमिनार में कई वरिष्ठ महिला पत्रकारों ने बताया था कि वर्षों के संघर्ष के बाद मीडिया संगठन में महिलाओं के लिए अलग वॉशरूम की व्यवस्था हुई है और उनकी यह मांग कई लोगों को उस समय भी जायज नहीं लग रही थी। लेकिन साल 2015 में एक मीडिया संगठन के साथ अपने करियर की शुरुआती दिनों में ही मुझे इस तरह की समस्या का सामना करना पड़ा था। यही नहीं, ज्यादातर मीडिया संस्थान ऐसे हैं कि उनके भीतर सैनिटरी नैपकिन खरीदने या मिलने की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है। हो सकता है कि हममें से कई लोगों को यह मांग बेकार भी लगे लेकिन जिन्होंने इस स्थिति को झेला है, वह समझ सकती हैं कि यह कितनी जरूरी चीज है। यह बहुत छोटी सी लेकिन जायज मांग है। मीडिया ही नहीं सारे संगठनों में सैनिटरी नैपकिन खरीदने या मिलने की सुविधा उपलब्ध हो।

ये बहुत ही छोटी-छोटी जरूरतें हैं, इन जरूरतों को पूरा करने के लिए हमें आपसी सहयोग की जरूरत है न कि विरोध की। इसमें विरोध करने जैसी कोई चीज नहीं है। अच्छा होगा कि इन सारी चीजों को हमारा समाज और संगठन किसी की शारीरिक क्षमता पर सवाल खड़े करने के अलावा एक शारीरिक प्रक्रिया के तौर पर समझने का प्रयास करे और लोगों में इसके प्रति जागरुकता फैलाए। हमारे देश में मासिक धर्म सिर्फ बहुत बड़ा टैबू ही नहीं है बल्कि लाखों लोगों के लिए रहस्य है क्योंकि आपस में इस बारे में बात करना नैतिकता और लोकाचार का उल्लंघन लगता है। 

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