मौत तू एक कविता है....

 मामा (हम लोग दादी को मामा बोलते थे) की मौत से करीब एक महीने पहले उनका गोदान करा दिया गया था। इसके बाद से  मामा ने लगभग बात करना बंद कर दिया थालेकिन खांसी और दमा को अभी भी उनसे बेहद लगाव था। एक दिन सुबह-सुबह मैंने पापा और मम्मी को काफी परेशान सा देखा। वह चाचा को बता रहे थे माय आब नै बचतै :मां अब नहीं बचेगी:” क्योंकि मामा ने सुबह में पापा को बताया था कि रात में यमराज अपने साथ भैंसा और मोटी रस्सी लेकर आया था। मैं घर का पर्दा पकड़े-पकड़े यह बात सुन रही थी और काफी डर गई थी। मामा पर एक गहरी नजर डालते हुए मैं दौड़कर  खेलने के लिए बाहर चली गई। 

  इसके बाद तो मैंने मामा के आस-पास फटकना भी बंद कर दिया था। हर वक्त मुझे सिर्फ मोटी  रस्सी लेकर यमराज ही आता दिखता था। इसका प्रभाव मेरे मन पर इतना ज्यादा था कि मैं मामा  के जल्द से जल्द मरने की दुआएं मांगने लगी थी। मैं रोज मंदिर जाती और आंख बंद करके  भगवान से कहती ‘मामा के मराय दहो न भगवानरोजे जम चैल आवै छै घोर में।” 

 मामा हमेशा बेचैन रहने लगी थी और अब उन्हें कुछ याद भी नहीं रहता था। वह कई बार दूध पीने  के बाद भी पापा को बताती थी कि मम्मी ने उन्हें दूध नहीं दिया और जब दोबारा पापा पीने को  बोलते तो वह मना कर देतीं। लगभग 15-20 दिन तक यही स्थिति रही और एक रात मामा के  प्राण लेने यम आ ही गया। मामा से यह पूछने का मौका ही नहीं मिला कि यम माेटी रस्सी और भैंसा लेकर आया था या नहीं। 


 दरअसल, कल जागरण फिल्म फेस्टिवल के अंतिम दिन सुभाशीष भूटियानी द्वारा निर्देशित फिल्म  'मुक्ति भवन' दिखाई गई थी। फिल्म को देखते समय से लेकर अब तक मामा मन पर छाई  हुई हैं। बार-बार उनका चेहरा याद करने की कोशिश करती हूं लेकिन कुछ सामने नहीं आ पाता। बस ऐसा लगता है कि कोई चेहरा अचानक आंखों के सामने ठहरता नहीं और गुजर जाता है। जिसे मैं चाह कर भी पकड़ नहीं पाती। मामा के मरने के तुरंत बाद भले ही मैं फूट-फूटकर न रोई हूंभले ही उनकी मौत के बाद हुए भोज को उत्सव की तरह मनाया हो लेकिन उसके बाद जिंदगी में हजारों ऐसे मौके आए जब लगा कि मामा की मुझे सख्त जरूरत है।

 इस फिल्म के बारे में कुछ लिखना मेरे बस की बात नहीं हैखासकर के कहानी पर। मृत्यु को  लेकर सकारात्मकता दिखाना ही इस फिल्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इस फिल्म ने जिस तरह  अर्थी और शव जलाने वाली लकड़ी को दिखाया है, वह श्मशान के सौंदर्यशास्त्र पर एक कविता जान  पड़ती है। इस फिल्म ने बाप-बेटे के रिश्ते का जो सजीव चित्रण किया है वैसी ईमानदारी आज-कल की फिल्मी कहानियों में कम ही देखने को मिलती है। फिल्म देखते समय ऐसा नहीं लगता है कि हम किसी और दुनिया की कहानी देख-सुन रहे हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि कहानी यहीं-कहीं  हमारे बीच की है।

 फिल्म को देखते समय मौत को लेकर कोई खौफ पैदा नहीं होता। फिल्म के कुछ मिनट बीतते  ही दर्शक मौत पर हंसने, खिलखिलाने और तालियां बजाने लगते हैं।
 और अंत में बस गुलजार कि कविता ही जुबान से निकलती है....
मौत तू एक कविता है
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे

ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे

         दिन अभी पानी में होरात किनारे के करीब

         ना अंधेरा ना उजाला होना अभी रात ना दिन
जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आए
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

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