समय के साख पर आज फूल कम दिखाई दे रहे हैं।भला फूल ही न हो तो तबस्सुम कैसे आए रूख्सार पर।बिना फूल के मनुष्य न तो हँस सकता है न रो सकता है। गम तो लगता है जैसे मनुष्य की चाहत पर निसार हो गया है।इससे भागने की जरुरत ही नहीं बची।हमने अपने चारों तरफ सीमाओं का जाल फैला रखा है। बाहर की सीमाओं को छोड़ भी दें तो क्या हमारे दिलों के अंदर कम सरहदें हमने बना रखी है?

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