खुशी,मोहब्बत ,शोहरत ,कामयाबी यही है जिंदगी या फिर दुख,नफरत,मौत,पीड़ा है जिंदगी।क्या कहेंगे आप?जिंदगी की परिभाषाएं परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है। मानव मन हमेशा खुद को छलना से छलते जाता है। क्या दिलो-दिमाग को ठगा जा सकता है?
            (अंकित,विष्णु,अरूण) खुशी,मोहब्बत ,शोहरत ,कामयाबी यही है जिंदगी या फिर दुख,नफरत,मौत,पीड़ा है जिंदगी।क्या कहेंगे आप?जिंदगी की परिभाषाएं परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है। मानव मन हमेशा खुद को छलना से छलते जाता है। क्या दिलो-दिमाग को ठगा जा सकता है?
            (अंकित,विष्णु,अरूण) शायद यही सोच रहा था दस दिनों तक बिस्तर पर पड़े रहकर। उसकी वो सारी खुशी काफूर हो चुकी थी जिसको उसने पहले जिया था।अब उसके सामने रातें थी ,बुखार से तड़पता जिस्म था ,माँ की वो यादें थी जिसमें स्नेह का हाथ था जो न जाने कितनी रातें सर पर थपकियाँ देते हुए गुजरी थी , और सामने प्लेट्लेट्स की संख्या थी। आँकड़े बदल गए थे ,रातें बदल गई थी । कल तक बाहर शोर-शराबे में डूबी हुई शाम थी आज तेज कांपती सांसे थी। उसने यहाँ धड़कनों को थमते देखा,आँखों को जमते देखा उसने यहाँ मौत देखी कि कैसे वह लोगों को शांत कराकर अपने आगोश में ले जाती है।
        बार-बार वह अपनी स्थिति के केंद्र को तलाशता  और पूछता है खुद से कि मेरे तमाम एहतियात के बावजूद मुझे डेंगी क्यों हो गया?फिर सोचता है अरे बिमारी तो ऐसी ही हो जाती है मगर उसका मन इस जवाब को स्वीकार नहीं करता एक तल्खी की चिंगारी उसके अंदर दबी हुई थी । वह सोचता है।शायद कॉलेज की तरफ से होस्टल मिल गया होता तो यूं अंधेरे कमरे और बिमारी की दोहरी मार झेलनी न पड़ती । वो तो अच्छा हुआ कि समय रहते टेस्ट करवा लिया वरना? उसने फिर सोचा  वरना क्या होता ज्यादा से ज्यादा कॉलेज प्रशासन शोक व्यक्त करता यूं भी इस देश के लोग शोक प्रकट करने में माहिर हैं और मुआवजा की घोषणा करनें में उससे भी आगे।हां किसी के ग़म का सबब कोई क्यों जाने । कोई क्यों जाने कि इस देश में हजारों लोगों की रातें वहां बीतती है जहां से लोग नाक पर रूमाल डालकर गुजर जाते हैं।
, शायद यही सोच रहा था दस दिनों तक बिस्तर पर पड़े रहकर। उसकी वो सारी खुशी काफूर हो चुकी थी जिसको उसने पहले जिया था।अब उसके सामने रातें थी ,बुखार से तड़पता जिस्म था ,माँ की वो यादें थी जिसमें स्नेह का हाथ था जो न जाने कितनी रातें सर पर थपकियाँ देते हुए गुजरी थी , और सामने प्लेट्लेट्स की संख्या थी। आँकड़े बदल गए थे ,रातें बदल गई थी । कल तक बाहर शोर-शराबे में डूबी हुई शाम थी आज तेज कांपती
 सांसे थी। उसने यहाँ धड़कनों को थमते देखा,आँखों को जमते देखा उसने यहाँ मौत देखी कि कैसे वह लोगों को शांत कराकर अपने आगोश में ले जाती है।
        बार-बार वह अपनी स्थिति के केंद्र को तलाशता  और पूछता है खुद से कि मेरे तमाम एहतियात के बावजूद मुझे डेंगी क्यों हो गया?फिर सोचता है अरे बिमारी तो ऐसी ही हो जाती है मगर उसका मन इस जवाब को स्वीकार नहीं करता एक तल्खी की चिंगारी उसके अंदर दबी हुई थी । वह सोचता है।शायद कॉलेज की तरफ से होस्टल मिल गया होता तो यूं अंधेरे कमरे और बिमारी की दोहरी मार झेलनी न पड़ती । वो तो अच्छा हुआ कि समय रहते टेस्ट करवा लिया वरना? उसने फिर सोचा  वरना क्या होता ज्यादा से ज्यादा कॉलेज प्रशासन शोक व्यक्त करता यूं भी इस देश के लोग शोक प्रकट करने में माहिर हैं और मुआवजा की घोषणा करनें में उससे भी आगे।हां किसी के ग़म का सबब कोई क्यों जाने । कोई क्यों जाने कि इस देश में हजारों लोगों की रातें वहां बीतती है जहां से लोग नाक पर रूमाल डालकर गुजर जाते हैं। 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

नसीर: कम संवाद वाली यह फिल्म हमें आइना दिखाकर स्तब्ध कर देती है...

सावन की एक सुबह और नैनीताल की सैर

‘यह सब नींद में चलने वाले लोग हैं, अपनी गलतियां नहीं देख पाते हैं’