समय के साख पर आज फूल कम दिखाई दे रहे हैं।भला फूल ही न हो तो तबस्सुम कैसे आए रूख्सार पर।बिना फूल के मनुष्य न तो हँस सकता है न रो सकता है। गम तो लगता है जैसे मनुष्य की चाहत पर निसार हो गया है।इससे भागने की जरुरत ही नहीं बची।हमने अपने चारों तरफ सीमाओं का जाल फैला रखा है। बाहर की सीमाओं को छोड़ भी दें तो क्या हमारे दिलों के अंदर कम सरहदें हमने बना रखी है?
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कहते हैं कि दुनिया रोज बदलती है मगर औरतों की दुनिया कहां बदल रही है।बाहरी रूप से जितने भी बदलाव देखने को मिले मगर अंदरूनी सच्चाई उसी गुलामी को ब्यां करती है जिस गुलामी से उबरने का दावा हम रोज कागज के कुछ टुकड़ो पर किया करते हैं।कुछ अपवाद हो सकते हैं मगर अपवाद सच्चाई को छुपा नहीं सकता।कानून में यौन उत्पीड़न,घरेलू हिंसा,मानसिक प्रताड़ना के लिए न जाने कितने नियम हैं मगर उस पर कितना अमल होता है यह सबके सामने है।जिस समाज में दहेज के लिए अभी भी बेटियों को जलाया जाए,प्यार करने की सजा मौत दिया जाए,बलात्कार जैसे संवेदनशील मुद्दों पर उल्टे लड़कियों को दोष दिया जाए,हर बात पर चुप रहना सीखाया जाए तो उस देश, उस समाज का विकास कभी संभव नहीं हो सकता।जहां एक तरफ अपने नागरिकों को किसी भी धर्म को मानने की स्वतंत्रता देता हो और दूसरी ओर यह भी नियम बनाता हो कि किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति से शादी होने के बाद खुद ब खुद धर्म परिवर्तन हो जाएगा।यह कहां कि धर्मनिरपेक्षता है ? बाल विवाह अभी भी गांवों में बदस्तूर जारी है।छोटे-छोटे मासूम बच्चियों से उनके जीवन का सबसे सुखद काल उनका बचपन छीन
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खुशी,मोहब्बत ,शोहरत ,कामयाबी यही है जिंदगी या फिर दुख,नफरत,मौत,पीड़ा है जिंदगी।क्या कहेंगे आप ? जिंदगी की परिभाषाएं परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है। मानव मन हमेशा खुद को छलना से छलते जाता है। क्या दिलो-दिमाग को ठगा जा सकता है ? (अंकित , विष्णु,अरूण) खुशी,मोहब्बत ,शोहरत ,कामयाबी यही है जिंदगी या फिर दुख,नफरत,मौत,पीड़ा है जिंदगी।क्या कहेंगे आप ? जिंदगी की परिभाषाएं परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है। मानव मन हमेशा खुद को छलना से छलते जाता है। क्या दिलो-दिमाग को ठगा जा सकता है ? (अंकित , विष्णु,अरूण) शायद यही सोच रहा था दस दिनों तक बिस्तर पर पड़े रहकर। उसकी वो सारी खुशी काफूर हो चुकी थी जिसको उसने पहले जिया था।अब उसके सामने रातें थी ,बुखार से तड़पता जिस्म था ,माँ की वो यादें थी जिसमें स्नेह का हाथ था जो न जाने कितनी रातें सर पर थपकियाँ देते हुए गुजरी थी , और सामने प्लेट्लेट्स की संख्या थी। आँकड़े बदल गए थे ,रातें बदल गई थी । कल तक बाहर शोर-शराबे में डूबी हुई शाम थी आज तेज कांपती सांसे थी। उसने यहाँ धड़कनों को थमते देखा,आँखों को जमते देखा उसने यहाँ म
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शायद जिंदगी के जज्बात गीतों के उन गुथे हुए मालाओं की तरह ही होते हैं। जो हर मोती में जीने की चाहत देखना चाहते हैं और धागे में वादों से बंधी इक डोर ,मगर महज जज्बात ही जीने के लिए काफी नहीं होते जिंदगी की उन तमाम सच्चाईयों से मुख मोड़ा नही जा सकता है जो हमारे समय में मैक्सिम गोर्की के नोवेल पीले दैत्य की तरह हमारे शरीर को ही नही हमारी आत्मा को भी निचोड़ रहे हैं।
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आँखों में खामोशी के चिन्ह होठों से ख़ुशी महरूम बचपन किसी फुटपाथ की गली में न जाने कब खो गया था सपनो में परियां न आती थी झूला झूलाने जिसे देख मन झूम जाए सपने में आते थे वो अंधेरे ,जिसकी सूरत कुछ रोटी जैसी गोल -गोल थी दौड़ता था,गिरता था उसके पीछे मगर जब भी उसके करीब पंहुचा तो वह हंसकर और भी दूर उस होटल में जा बैठी जहाँ जूठन पड़ा था।