ये पर्वतों के दायरे.........


सुबह का उजाला हो, नदी का किनारा हो और दूर तक पहाड़ की बाहें हो, जिसमें दुनिया को क्या, मैं खुद को भी भूल जाऊं। पानी का ऐसा शोर जिससे मन के अंदर की हलचल खत्म हो जाए और दिल शांति से भर जाए. ऋषिकेष की यात्रा के दौरान पानी और पहाड़ ने मुझे यह एहसास दिला दिया कि मनुष्य सिर्फ प्रकृति के पास ही खुश रह सकता है. गंगा का वो बालू जिस पर सुबह में पैर रखने से ऐसा एहसास होता है कि यहां से बाहर जिंदगी है ही नहीं।
इस यात्रा की शुरुआत ही बहुत अच्छी हुई थी क्योंकि बस ड्राइवर के पास पुराने गानों का अच्छा संग्रह था. उसने मुझे खुबसूरत यादों में बांधे रखा. यादें कितनी अजीब होती हैं, आपकी तन्हाई का सबसे बड़ा सहारा। इन्हीं यादों के बीच से गुजरते हुए गाजियाबाद, मेरठ और मुजफ्फरनगर आया। मुजफ्फरनगर नाम ही काफी था दिल में डर, चीख, रोने की आवाज भर देने के लिए। मगर रात शांत थी और अमूमन जैसा होता है रात की काली चादर ने जख्मों को ढक रखा था, आगे सुबह का उजाला था और मैं ऋषिकेष पहुंच चुकी थी. जगह काफी शांत था जैसा कि मैं चाहती थी. नदी का तट खाली था, कोई आसपास नहीं. मेरी बचपन की आदत है नदी और खेतों से बातें करने की, बस पहाड़ की ही कमी थी मेरे गांव में जो यहां पूरी हो गई. 


इन दृश्यों को देख लगा कि जिंदगी सुबह ऑफिस जाना, रात को आना और बसों के पीछे भागने के अलावा भी है. ऋषिकेश से मैंने बहुत सी अच्छी यादें लेकर लौटी मगर एक दुख भी था कि गंगा अब सूखती जा रही है और अपना रास्ता भी बदलती जा रही है. दूर-दर तक फैले गंगा के मैदान में छोटे-छोटे सफेद पत्थर ही दिखाई देते हैं, हरिद्वार आने तक तो स्थिति और भी भयावह हो जाती है. दिल में एक ही प्रश्न बार-बार उठा कि कहीं गंगा पूरी तरह से गायब तो नहीं हो जाएगी?

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