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जनवरी, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

गीतों की जिंदगी

साहित्य और संगीत के क्षेत्र में एक बहस वर्षों से चली आ रही है कि कला को कला के लिए या फिर जीवन के लिए होना चाहिए। इस बहस में कलाकार दो वर्गों में विभक्त हैं। एक भाग उनका है जो यह कहते हैं कि कला का मुख्य पक्ष मनोरंजन करना है और दूसरा है कि कला का समाज के प्रति कुछ उत्तरदायित्व भी होना चाहिए। पीट सीगर ऐसे लोगों में से थे जो यह मानते थे कि जरूरत पड़ी तो कला का प्रदर्शन राजनीतिक विरोध के लिए भी हो सक ता है। पीट सीगर का जन्म 3 मई 1919 को न्यूयार्क के पेटरसन में हुआ था। संगीत उन्हें विरासत में मिला था। सीगर ने अपनी कला का उपयोग विरोध जताने और लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए किया। उनकी गीतों में इस भावना की छाप साफ नजर आती थी जैसे “ सारे फूल कहां चले गए, हेमर गीत, टर्न टर्न टर्न, इत्यादि।लेकिन उनके दवारा गाए गीत वी शैल आवर काम ने सरहदों की सीमाएं तोड़ दी। उस गीत का प्रभाव इतना ज्यादा था कि भारत में उसका अनुवाद हम होंगें कामयाब आज तक लोगों की जुबां पर दर्ज है। अमेरिकी सरकार के विरोध में गाने के कारण इन्हें वहां की सरकार ने 50वें दशक में वामपंथी रूझान के कारण इन्हें ब्लेकलिस्ट में डाल दि

अपने हक को तलाशता बचपन

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जिंदगी के कुछ वक्त ऐसे होते हैं जिनको जीने की ख्वाहिश मानव मन के अंदर जीवन पर्यन्त बनी रहती है।कुछ ऐसा ही यादगार और रोचक वक्त बचपन का होता है जिसकी यादें हमेशा उर्जा प्रदान करती हैं। उस वक्त बेफिक्री का ऐसा आलम होता है कि दिन और रात का कुछ पता ही नहीं चलता। बेखौफ हंसने और रोने का नाम है बचपन,रात में देखे गए सपने को सच समझकर जीने का नाम है बचपन।इस समय में पाई गई शिक्षा की नींव ही हमारे कल को बेहतर बना पाती है।मगर अफसोस ! सबका बचपन कहां चहकती हुई मुस्कानों के बीच बीत पाता है वह तो पेट की भूख से शुरू होकर भूख तक ही खत्म हो जाता है।गरीबी आदमी के बचपन,जवानी और बुढ़ापे में बिल्कुल भी फर्क नहीं करती है।                                 आजादपुर मेट्रो स्टेशन के बाहर पानी बेचनेवाला ग्यारह वर्षीय सोहन बिहार के नवादा जिले का रहनेवाला है। बड़ी मासूमियत के साथ उसने बताया कि वह अपने मुहबोले चाचा के झूठ का शिकार बना है “ दो साल पहले मेरे चाचा ने कहा था कि दिल्ली चलो वहीं पढाउंगा तब से आज तक घर नहीं गया हूँ। ” उसकी बातों से ऐसा लगता था कि उसके मां-बाप को भी इस हकीकत का पता था मगर गरीबी और अशिक्ष

पर्यावरण के संकट

                                 पर्यावरण के संकट आज के समय में दुनिया किस विकास का हिस्सा होने जा रहा है यह एक सोचनीय विषय है।लगातार पर्यावरण को ताक पर रखकर बनाए गई सड़कें,पनबिजली योजनाएं,इमारतें,बांध और विभिन्न प्रकार के निर्माण मनुष्य को आगे की ओर नहीं पीछे की ओर धकेल रहे हैं।इसका एक उदाहरण पिछले साल जून में हुई उत्तराखंड त्रासदी है।जिस तरह नदियों ने अपनी जमीन वापस लेने के लिए तांडव मचाया वह किसी से छुपा नहीं है।हजारों परिवार बेघर हो गए,आस्था में रंगे लोगों ने अपने जान को नदियों में विसर्जित होते देखा।इन सब के पीछे सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि आखिर वह कौन से लोग हैं जो   प्रकृति से छेड़-छाड़ करने में भी बाज नहीं आते।हिमाचल प्रदेश में जिस तरह नदियों   के गर्भ को कुरेदकर सुरंगे बनाई जा रही है और जिस तरह से उनके मार्ग को परिवर्तित किया जा रहा है उसका खामियाजा वहां के आम लोग भुगतेंगें जिससे उनका कोई लेना-देना नहीं है।अब वहां के लोगों ने भी इसके खिलाफ एक मुहिम छेड़ दी है जो एक संघर्ष का हिस्सा है।भोले-भाले लोगों से जिस तरह से भूमि अधिकृत की जाती है वह भी एक सोचनीय मुद्दा है।यह सब पन

विचारधारा की तलाश में आप

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जनतंत्र में जनता कभी महज तमाशबीन रहती है तो कभी सर्वशक्तिमान सत्ता। जिससे दुनिया के हर तानाशाह व्यक्तित्व को खतरा रहता है।इसके गुस्से की गुंज से सत्ता की नींव कई बार हिल चुकी है।चाहे वह इंदिरा गांधी की सरकार हो या शीला दीक्षित की।मगर दिल्ली के सियासत की गर्मा-गर्मी में मैदान में दोनों ही सरकारें जनता द्वारा चुनी हुई हैँ।यह समय जनता के लिए काफी परेशानी वाला है।उन्हें यह सोचना है कि किसकी राह उनके सुख-दुख से गुजरती है और किसकी नहीं।दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने आंशिक मांगों को मान लिए जाने के कारण धरना खत्म कर दिया है।मगर यहाँ प्रश्न बड़े परिमाप का प्रतित हो रहा है कि दिल्ली पुलिस को केंद्र के हाथ में रखना चाहिए  या दिल्ली  सरकार के अंदर। एक मुख्यमंत्री होने के नाते अरविंद केजरीवाल की मांग जायज है कि सुरक्षा व्यवस्था की जवाबदेही के लिए जनता उनकी ओर देख रही है मगर एक प्रश्न यह भी उठता है कि क्या दिल्ली के विधी मंत्री सोमनाथ भारती को अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ देर रात किसी महिला के घर बिना किसी प्रशासनिक नोटिस के घुस कर उसे प्रताड़ित करना चाहिए था।इसका जवाब अरव

mazaz lakhnavi

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आज भी दूर कहीं बाजे बजने की आवाज आ रही थी।आजकल फिर चाचा परेशान रहा करते थे।उनकी     दोपहर और शाम की नींद में खलल पड़ गई थी।बड़ा परिवार मगर कहने को बड़ा था। सबको पता था कि बुढ़ी हड्डियां अब किसी काम की नहीं रह गई है इसलिए कोई उनका ख्याल रखने को तैयार नहीं था। उनके नींद में खलल पड़नें की सबसे बड़ी वजह चुनाव अभियान का प्रचार-प्रसार था। दिन में आर्शिवाद और   वोट   मांगने वालों के कारण नहीं सो पाते थे और रात में बेटे और बहू के झगड़े की वजह से। आजकल बेटे को मुफ्त घटिया दर्जे की शराब मिल जाया करती थी।जिसके कारण कमाना भी छोड़ दिया था। एक तो मंहगाई और कमाई कुछ नहीं।बच्चे आनेवाले पर्व की तैयारी के लिए उत्सुक तो थे मगर मां और पिता से हर रोज मार खाकर उन्होंने अपने आप को एक तमाशबीन बनाने के लिए तैयार कर लिया था जिसके कारण वह भी घर से बाहर ही रहा करते थे।हर दिन किसी न किसी नए पार्टी का झंडा पकड़कर नाचते और इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाते थे। उनके स्कूलों में भी प्रत्येक दिन वोट मांगने वालों की भीड़ लग ही जाया करती थी। उनके शिक्षक भी पढ़ानें में कम और नेताओं के वोट बैंक के बारे में ज्यादा बातें किया