जॉर्ज ऑरवेल की किताब '1984' जैसी व्यवस्था की तरफ बढ़ रहे हैं हमारे कदम

कितनी चीजें थी विरोध करने के लिए लेकिन चुप रहना ज्यादा जरूरी लगा क्योंकि थाली में सिर्फ रोटी नहीं हमें बहुत कुछ चाहिए था। हम दूर बैठे प्रधानमंत्री को गाली दे सकते थे लेकिन रोजाना जहां हमारा उठना-बैठना था, वहां हम गलत चीजों का विरोध नहीं कर पाए क्योंकि उसके परिणाम तुरंत सामने आने थे। जेहन में घर-परिवार था और जब यह भी नहीं था तो भविष्य की योजनाएं थीं। हम गलत निर्णय लेते गए लेकिन मन को यहां तक मना चुके थे कि यही सबसे सही फैसला था और हम अपने फैसलों पर गर्व करने लगे थे।

हमारे कमरे की अालमारियां उन किताबों से भरी हुई थीं जिसके नायक-नायिकाओं को प्रतिरोध के लिए पढ़ा-सुना जाता था। हम गांधी, मार्क्स, चे ग्वेरा, मार्टिन लूथर किंग जूनियर से अपने कमरे की दीवारें तो नीले-पीले करते रहे लेकिन बोलना बहुत कठिन था। हम हबीब जालिब के इंकलाबी नगमों को यू ट्यूब पर लूप में बजाते रहे लेकिन हमारा बोलना संभव नहीं हो सका। क्योंकि हम खाए-पीए-अघाए और अपनी बारी का इंतजार करते हुए लोग हैं। हम हर बार खुद को यह समझाकर रह जाते हैं कि ऐसा हमारे साथ तो नहीं हुआ। हमें ऐसा भ्रम है कि हम अपने घरों में सुरक्षित हैं, जबकि सुरक्षा अब बीते जमाने का शब्द है।


हर समय लगता है कि जॉर्ज ऑरवेल की लिखी किताब '1984'  की तरह का माहौल बनाने में हम एक कदम आगे की ओर जा रहे हैं। हमारी भावनाएं, हमारा सम्मान, हमारी सोच सब ऐसा लगता है जैसे कॉपी-पेस्ट हो रहा है।हम क्या लिख रहे हैं...क्या बोल रहे हैं, सब पर नजर रखी जा रही है। कई साल पहले सीआई के पूर्व कर्मचारी एडवर्ड स्नोडन ने जब सीआईए द्वारा निजी जीवन की चीजों को रिकॉर्ड करने की बात कही थी तो मुझे यह बात ज्यादा समझ नहीं आई थी, यहां तक कि उनका बयान, '' मैं एक ऐसे दुनिया में नहीं जीना चाहता जहां मैं जो कुछ भी बोलूं या करूं, जिस किसी से भी बात करूं, जिस तरह की रचनात्मकता जाहिर करूं या मेरी दोस्ती-मेरा प्यार सब कुछ रिकॉर्ड किया जाए।'' 

मुझे लगा था कि इस चीज को बढ़ाचढ़ा कर पेश किया जा रहा है, दरअसल तब मेरे पास फोन भी नहीं हुआ करता था और न ही मुझे अमेरिका और सीआईए के बारे में ज्यादा जानकारी थी लेकिन अब अपने आस-पास ही ऐसा होते देखकर लगता है कि हम कहां जी रहे हैं। हमारी सुरक्षा के नाम पर हर जगह कैमरे लगाए जा रहे हैं लेकिन फिर भी अपराध बढ़ता जा रहा है। कभी-कभी मुझे लगता है...अंग्रेजों ने गुलामी हमारी रगो में भर दिया है। हम माथा नहीं लगाना चाहता हैं। ऐसा भी समय आ जाएगा कि हमारी सुरक्षा का डर हमारे मन में इस कदर भर दिया जाए कि हम सभी हर समय बंदूक लेकर घूमने लगेंगे। हमें हमारी इंसानियत से हर मिनट दूर किया जा रहा है, हममें मशीन की तरह सोचने की प्रवृति भरी जा रही है जबकि हमें हर पल यह याद रखने की जरूरत है कि हम मशीन नहीं हैं और हम एक ऐसे ग्रह के निवासी हैं जिसकी तरह का कोई ग्रह अभी तक मिला नहीं है। सिर्फ पृथ्वी पर ही जीवन है, कहीं और इसके प्रमाण नहीं मिले हैं। हमें क्या-क्या होना था और हमें क्या-क्या बना दिया जा रहा है।   

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