शहर, समंदर और दोस्ती...

किसी भी शहर में लबालब पानी होना उस शहर की खूबसूरती का महज हिस्सा नहीं होता बल्कि उस शहर का एहसास होता है। यह एहसास पहली बार मुझे उदयपुर जाकर हुआ था, जहां शहर में घुसते ही कदम-कदम पर झीलें दिखाई पड़ती हैं। और दूसरी बार इसका एहसास मुंबई जाकर हुआ। मुंबई के बारे में ऐसा सुना था कि इस शहर में कोई अकेला नहीं होता, यहां जो समंदर है, वह हर किसी के साथ होता है। यह वाकई सच है।

मुंबई में प्रवेश करते ही मैंने कैब ड्राइवर से बोला, ''भैया समंदर के पास से गुजरना और रास्ते में किसी वड़ा पाव की दुकान पर गाड़ी रोक देना'' लेकिन अपनी बात खत्म करते ही मैंने इसमें सुधार करते हुए कैब वाले से पूछ भी दिया कि 'भैया' शब्द सुनकर बुरा तो नहीं लगा। दरअसल मैं, बिहार वालों के लिए मुंबई में नफरत की इतनी खबरें सुनकर बड़ी हुई हूं कि मुंबई से एक तरह की शिकायत मेरे मन में जरूर थी। लेकिन कैब चालक ने तुरंत पलटकर कहा 'जी हम यूपी से हैं।''

सांता क्रूज़ बगल में होने से हम रास्ते में समंदर तो नहीं देख पाए लेकिन कैब वाले की मेहरबानी से वड़ा पाव रास्ते में ही खा लिया। मैं और प्रियोदत्त मुंबई में कायदे से सबकुछ निहार लेना चाहते थे क्योंकि हमें पता था कि हम दोस्तों ने मुंबई की यह ट्रिप कितने वर्षों की हां-ना के बाद बनायी थी। मैं इस शहर में किसी खास मकसद से भी आई थी। ऐसा कहा जाता है कि मुंबई सपनों का शहर है। मेरा कोई सपना इस शहर से जुड़ा हुआ नहीं था लेकिन धीरे-धीरे चढ़ने वाले नशे सरीखे इस शहर के जादू से कोई भला कैसे बच सकता था। मैं भी नहीं बच पाई। खैर यह कहानी फिर कभी।


हम और प्रियोदत्त दुनिया के सबसे बड़े मेहमाननवाजों में से एक निकेश के घर पहुंच चुके थे। निकेश...वही निकेश (निकेश किसी परिचय का मोहताज नहीं लेकिन उसके बारे में कुछ जानकारियां देनी जरूरी है। ताकि सनद रहे)
सांता क्रूज....
(निकेश इधर ही रहता है और गुस्सा होने पर बात-बात पर कहता है...हमसे चैंट रऐ ! उत्तर प्रदेश से नहीं हूं इसलिए चैंटने का मतलब नहीं पता था। दोस्त ऐसा कि मुंबई में रहकर दिल्ली बेच दे और सियासत को पता भी न चले। मतलब एक दम 420 टाइप ईमानदार आदमी। दुनिया के बड़े मेहमाननवाजों और घुमक्कड़ों में से एक। लेकिन अफसोस उतना ही बड़ा सर फोड़ने वाला व्यक्ति। यानी अगर बोलने लगे तो आपकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता गयी तेल लेने। मुंबई में ऐसे घूमता है जैसे अक्खा मुंबई की लाइफलाइन लोकल से नहीं, उससे है।  बेहद झगड़ालू किस्म का आदमी जो आपको हर समय संशोधनवादी होने का ताना देता रहता है मगर जरा ठहरिये, वह आपको आपके गांव की भी गली ऐसे घूमाएगा जैसे आप पहली बार अपने गांव आए हैं। तो हमें और प्रियोदत्त को मुंबई घूमाने का काम राजू पर था (राजू 'निकेश' का नाम है... 'गाइड से प्रेरित') ।

निकेश के किचन से सामने दूसरी इमारतों की खिड़कियां दिख रही थी। ज्यादातर किचन की खिड़कियां खुली हुई थी और उसमें औरतें काम कर रही थीं। मेरे सामने से जो खिड़की दिख रही थी उसमें एक अधेड़ उम्र की औरत अपने गीले बालों में कंघी कर रही थी और गैस पर बिल्कुल ऐसा प्रेशर कुकर रखा था जो  मेरा मनपसंद डिजाइन है। मैं सोचने लगी दुनिया में लोग अपनी तरफ से भी कैसे दूसरे लोगों से संपर्क बना लेते हैं, मैं यहां कुकर देखकर उस औरत के साथ जुड़ गई थी।

हां तो निकेश इसी बीच में जूस ले आया और नास्ते में मूसली भी तैयार कर लिया। मैं मुस्कुराते हुए निकेश की तरफ देखकर सोचने लगी, '' निकेश मूसली खाता है? क्यों निकेश मूसली नहीं खा सकता, यह भी तो इंसान है लेकिन क्या निकेश से मूसली खाने की शराफत की उम्मीद की जा सकती है?'' तब तक शायद वह मेरी बात समझ चुका था और हंसने लगा।

मुंबई आने से पहले ही मन में सोचा था कि पहली बार समंदर तो सफेद शर्ट में ही देखनी है। लेकिन मुंबई जाने से पहले यह लड़की सफेद शर्ट खरीदना भूल गई थी। राजू से जब अपने दिल की बात बताई तो उसने झट से अपनी प्रेस की हुई सफेद शर्ट मेरी तरफ बढ़ा दी। बताया न कि राजू के दिमाग में स्क्रिप्ट चलती रहती है लेकिन अब वह फैशन डिजाइनर हो गया था। हम तीनों बैठकर देर तक दिल्ली की बातें करते रहें। इन्हीं बातों में पता चला कि अपना एक और दोस्त जिसे दुनिया अक्षय के नाम से जानती है, वह यहां बिट्टू के  नाम से भी जाना जाता है। हाय रे मुंबई...कितना कुछ था इसकी जेब में अभी बताने को।

खैर अब बात अक्षय की। यह लड़का वैसे है जैसे 'जब भी मिलो तुम, मुस्कुराता हुआ मिलूंगा मैं' आईआईएमसी में कुछ लोग हैं जिनकी पहचान कैमरे से होती है। अक्षय भी वैसे ही लोगों में से एक है। शांत सा दिखनेवाला लड़का, जितना पूछो...उतनी ही बातें बताने वाला लेकिन बोर नहीं करता है। साहब जॉन एलिया के मुरीद हैं। कभी मौका मिले तो इनसे सभी को जॉन साहब का शेर सुनना चाहिए। मुस्कुराते हुए यह जॉन साहब का शेर गदर तरीके से पढ़ते हैं लेकिन जोर से हंसते नहीं हैं। कभी ठहाके नहीं लगाते।  प्रियोदत्त इसके बारे में कहता है ' यह हंसते हुए आवाज नहीं करता, शायद हंसी को अपनी कविताओं के साथ शेयर करता है। कभी-कभी कॉफी का मग हाथ में थामे, पुराने-पुराने गाने सुनता मुस्कुराने लगता है। ऐसे लगता है पुरानी हंसी कहीं अटक गई थी इसके भीतर, उसे निकाल रहा है होल्ले-होल्ले।' यहां आने पर पता चला कि जनाब कवि भी हो गए हैं और वाकई अच्छी कविता लिख लेते हैं। इनके साथ घूमते-घूमते पता चला कि थोड़ी बहुत दखल यह दर्शनशास्त्र में भी दे रहे हैं आजकल। हाय राम! यह लोग मुंबई आकर इतने बदल गए या पहले से ही इतने बदले हुए थे। यही अंतर होता है ऐसे किसी को जानने में और घूमते हुए किसी को जानने में।

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