दोष हिंदी में नहीं, हमारी मानसिकता में है.
हर साल जब हिंदी दिवस करीब आने लगता है, हिंदी भाषा को लेकर एक बहस शुरू हो जाती है. यह बहस हिंदी बोलने वाली आम जनता के बीच कम बल्कि नेताओं और हिंदी साहित्यकारों के बीच ज्यादा है. समय-समय पर ये ही लोग जनता को बताते हैं कि हिंदी भाषा खतरे के निशान से ऊपर चल रही है या नीचे. बाकी जनता तो अपनी ठेठ बोली ही बोलने में मगन रहती है.
भाषा की लड़ाई इस देश में आज से नहीं है, यहां हमेशा सत्ता और जनता की भाषा प्राचीन समय से ही अलग रही है. जब सत्ता की भाषा संस्कृत थी तो आम जनता दूसरी भाषा से अपना काम चलाती थी. यहां तक की समाज के कई वर्गों को संस्कृत बोलने का अधिकार तक नहीं था. मुगलों के समय भी हाल कुछ ऐसा ही था, वे लोग फ़ारसी बोलते, वहीं, जनता को फ़ारसी का कोई ज्ञान नहीं था. यानी कुल-मिलाजुलाकर जनता हमेशा किसी न किसी भाषा के पेंच में पड़कर तड़पती रहती है. यह तड़प भाषा के लिए नहीं बल्कि रोजी-रोटी के लिए होती है.
जब इस देश के लोगों को अंग्रेजों से आजादी मिली तब उन्होंने यह सोचा भी नहीं होगा कि अपने ही घर में वे अपनी भाषा के लिए आपस में लड़ेंगे. हिंदी भाषा के बारे में बहुत कुछ लिखा गया और बहुत कुछ कहा गया. यहां तक की अब यह भी कहा जाने लगा है कि हिंदी पढ़ना हर किसी के लिए अनिवार्य कर देना चाहिए. मगर हमेशा यह हास्यास्पद ही है कि जो लोग हिंदी की तरफदारी करते हैं उनके बच्चे ही हिंदी मीडियम से नहीं बल्कि अंग्रेजी मीडियम से पढ़ाई कर रहे होते हैं.
यही दोहरा चरित्र हिंदी को लगातार पीछे ढकेलता रहा है. हिंदी को खतरा यहां के क्षेत्रीय भाषाओं या अंग्रेजी से नहीं है. बल्कि उस मानसिकता से है जिसमें अब यह सीधा समझा जाने लगा है कि आपको अगर अंग्रेजी नहीं आती है तो आपको कुछ भी नहीं आता है. ज्ञान से हटकर अगर सैलरी की बात करें तो आपको यह जानकर हैरानी होगी कि प्राइवेट जगहों में हिंदी माध्यम में काम करने वाले लोगों की सैलरी अंग्रेजी माध्यम में काम कर रहे लोगों की आधी है. हिंदी भाषा को बढ़ाने में हिंदी पत्रकारिता का भी अहम योगदान है लेकिन अगर आप हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारों की सैलरी स्लिप देखेंगे तो पाएंगे कि एक ही तरह के काम करने के लिए एक ही संगठन अंग्रेजी पत्रकारों को ज्यादा सैलरी और सुविधा देती है. वहीं, हिंदी पत्रकारों को आधी से भी कम सैलरी मिलती है.
भाषा के प्रश्न को ही हम उठाकर देखें तो आश्चर्य होगा कि पिछले दस सालों में हिंदी भाषा ऊपर की ओर नहीं बल्कि नीचे की ओर आ रही है. हिंदी किताबों को पढ़ने वाले लोगों की संख्या लगातार घट रही है. हिंदी किताबों के दुकान रोज बंद हो रहे हैं. देश भर में हिंदी के विद्वानों को तो छोड़िए, शिक्षकों की भारी कमी है. स्कूलों में हिंदी विभाग के बारे में प्राय: ऐसा मान लिया जाता है कि इसे किसी तरह के देख-रेख की जरूरत नहीं है. अगर आप हिंदी पट्टी के स्कूलों में जाएं तो देखेंगे कि वहां के हिंदी विभाग का काम दूसरे विषय पढ़ा रहे शिक्षकों के सहारे ही चलता है. इसलिए हिंदी भाषा को लेकर अब जितने भी जुमले उछाले जाएं, जितनी भी तरह की बातें कहीं जाए सच्चाई यही है कि हिंदी भाषा अब लोगों को रोजगार के वो विकल्प देने में असमर्थ हो गई है जो अंग्रेजी देती है. दोष हमारी भाषा में नहीं है बल्कि हमारी मानसिकता में है जिसने हिंदी को अब महज अनुवाद की भाषा बना कर रख दिया है.
आज शहर और गांव दोनों ही जगहों में अंग्रेजी मीडियम के स्कूल रोज खुल रहे हैं. वहां पढ़ रहे बच्चों की हालत ऐसी है कि उन्हें न तो हिंदी ही ठीक से आ पाती है और न ही अंग्रेजी. उन सारे बच्चों का भविष्य खराब करने में किसका हाथ है, यह सोचना फिलहाल जरूरी हो गया है. अगर सरकार में इच्छा हो तो वह भाषा की समस्या को आसानी से खत्म कर सकती है और बच्चों का भविष्य बचा सकती है. स्कूलों में बच्चों को ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि उन्हें हिंदी के साथ-साथ दूसरी भाषा का भी ज्ञान आसानी से मिल सके.
भाषा की लड़ाई इस देश में आज से नहीं है, यहां हमेशा सत्ता और जनता की भाषा प्राचीन समय से ही अलग रही है. जब सत्ता की भाषा संस्कृत थी तो आम जनता दूसरी भाषा से अपना काम चलाती थी. यहां तक की समाज के कई वर्गों को संस्कृत बोलने का अधिकार तक नहीं था. मुगलों के समय भी हाल कुछ ऐसा ही था, वे लोग फ़ारसी बोलते, वहीं, जनता को फ़ारसी का कोई ज्ञान नहीं था. यानी कुल-मिलाजुलाकर जनता हमेशा किसी न किसी भाषा के पेंच में पड़कर तड़पती रहती है. यह तड़प भाषा के लिए नहीं बल्कि रोजी-रोटी के लिए होती है.
जब इस देश के लोगों को अंग्रेजों से आजादी मिली तब उन्होंने यह सोचा भी नहीं होगा कि अपने ही घर में वे अपनी भाषा के लिए आपस में लड़ेंगे. हिंदी भाषा के बारे में बहुत कुछ लिखा गया और बहुत कुछ कहा गया. यहां तक की अब यह भी कहा जाने लगा है कि हिंदी पढ़ना हर किसी के लिए अनिवार्य कर देना चाहिए. मगर हमेशा यह हास्यास्पद ही है कि जो लोग हिंदी की तरफदारी करते हैं उनके बच्चे ही हिंदी मीडियम से नहीं बल्कि अंग्रेजी मीडियम से पढ़ाई कर रहे होते हैं.
यही दोहरा चरित्र हिंदी को लगातार पीछे ढकेलता रहा है. हिंदी को खतरा यहां के क्षेत्रीय भाषाओं या अंग्रेजी से नहीं है. बल्कि उस मानसिकता से है जिसमें अब यह सीधा समझा जाने लगा है कि आपको अगर अंग्रेजी नहीं आती है तो आपको कुछ भी नहीं आता है. ज्ञान से हटकर अगर सैलरी की बात करें तो आपको यह जानकर हैरानी होगी कि प्राइवेट जगहों में हिंदी माध्यम में काम करने वाले लोगों की सैलरी अंग्रेजी माध्यम में काम कर रहे लोगों की आधी है. हिंदी भाषा को बढ़ाने में हिंदी पत्रकारिता का भी अहम योगदान है लेकिन अगर आप हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारों की सैलरी स्लिप देखेंगे तो पाएंगे कि एक ही तरह के काम करने के लिए एक ही संगठन अंग्रेजी पत्रकारों को ज्यादा सैलरी और सुविधा देती है. वहीं, हिंदी पत्रकारों को आधी से भी कम सैलरी मिलती है.
भाषा के प्रश्न को ही हम उठाकर देखें तो आश्चर्य होगा कि पिछले दस सालों में हिंदी भाषा ऊपर की ओर नहीं बल्कि नीचे की ओर आ रही है. हिंदी किताबों को पढ़ने वाले लोगों की संख्या लगातार घट रही है. हिंदी किताबों के दुकान रोज बंद हो रहे हैं. देश भर में हिंदी के विद्वानों को तो छोड़िए, शिक्षकों की भारी कमी है. स्कूलों में हिंदी विभाग के बारे में प्राय: ऐसा मान लिया जाता है कि इसे किसी तरह के देख-रेख की जरूरत नहीं है. अगर आप हिंदी पट्टी के स्कूलों में जाएं तो देखेंगे कि वहां के हिंदी विभाग का काम दूसरे विषय पढ़ा रहे शिक्षकों के सहारे ही चलता है. इसलिए हिंदी भाषा को लेकर अब जितने भी जुमले उछाले जाएं, जितनी भी तरह की बातें कहीं जाए सच्चाई यही है कि हिंदी भाषा अब लोगों को रोजगार के वो विकल्प देने में असमर्थ हो गई है जो अंग्रेजी देती है. दोष हमारी भाषा में नहीं है बल्कि हमारी मानसिकता में है जिसने हिंदी को अब महज अनुवाद की भाषा बना कर रख दिया है.
आज शहर और गांव दोनों ही जगहों में अंग्रेजी मीडियम के स्कूल रोज खुल रहे हैं. वहां पढ़ रहे बच्चों की हालत ऐसी है कि उन्हें न तो हिंदी ही ठीक से आ पाती है और न ही अंग्रेजी. उन सारे बच्चों का भविष्य खराब करने में किसका हाथ है, यह सोचना फिलहाल जरूरी हो गया है. अगर सरकार में इच्छा हो तो वह भाषा की समस्या को आसानी से खत्म कर सकती है और बच्चों का भविष्य बचा सकती है. स्कूलों में बच्चों को ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि उन्हें हिंदी के साथ-साथ दूसरी भाषा का भी ज्ञान आसानी से मिल सके.
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