संदेश

2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नसीर: कम संवाद वाली यह फिल्म हमें आइना दिखाकर स्तब्ध कर देती है...

चित्र
अजान हो चुका है, सुबह के छह बज रहे हैं, ताज अपने किचन में खाना बना रही है, इकबाल को उठाया जा रहा है… घड़ी की टिक-टिक जारी है.   कुछ इस तरह से ‘नसीर’ का पहला दृश्य शुरू होता है। एक आम जिंदगी में पैसे की तंगी और उधारी। हजारों घरों की तरह घर, दीवारों का चूना झरता हुआ और दरारें निकली हुईं। नसीर अपनी पत्नी को बस स्टैंड पर छोड़ने के लिए जाता हुआ और चलते कदमों की आवाज के साथ-साथ पीछे से मस्जिद की लाउडस्पीकर की आवाज। पति-पत्नी संकरी गलियों से आगे बढ़ते हैं. लाउडस्पीकर से आवाज आती है, ‘’ छोटी-छोटी बातों पर विवाद हो रहा है, टोपी पहने या न पहने इस पर भी।’’ संकरी गलियों से निकल कर पति-पत्नी मुख्य सड़क पर आते हैं. बाजार में गणेश भगवान की मूर्तियां रखी हुई हैं, पीछे से लाउडस्पीकर   से आवाज आ रही है कि भारत और तमिलनाडु प्राचीन समय में कैसा था? बातें हो रही हैं कि राक्षसी ताकतें आगे बढ़ रही हैं लेकिन धर्म इसे खत्म करने में मदद करेगा। बात देश को किस-किस से खतरा है पर आती है? किसी का नाम नहीं लिया जाता लेकिन इशारा स्पष्ट है। कुछ इस तरह से तमिल फिल्म 'नसीर' की शुरुआत होती है. यह फिल्म ऑनल

‘यह सब नींद में चलने वाले लोग हैं, अपनी गलतियां नहीं देख पाते हैं’

चित्र
लोग गरीबी, अभाव, भुखमरी और दरिद्रता की बात करते हैं लेकिन काव्यात्मक प्रतीत होने वाले इन शब्दों में से कोई भी शब्द हमारी उस स्थिति को बयां नहीं करता है जिससे हम तब गुजरे थे। दुनिया की कोई भी भाषा हमारी उस स्थिति का बयान नहीं दर्ज कर सकती। उन दिनों हर क्षण बर्दाश्त के बाहर होने वाली पीड़ा को भला दुनिया की किस भाषा के किन शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है? मनोरंजन व्यापारी की किताब ‘ इंट्रोगेटिंग माय चंडाल लाइफ’ को पढ़ते समय मैंने कई बार सोचा कि मैं भूख के बारे में क्या जानती हूं, शायद कुछ नहीं। पहली बार ऐसा था कि मैं एक ऐसी किताब पढ़ रही थी जिसे सड़क पर चाय बनाने वाले किसी बच्चे, पटरी पर फेंकी गई रोटी को लेने के लिए कुत्ते के साथ दौड़ जाने वाले बच्चे, पुलिस के हाथों शारीरिक उत्पीड़न झेलने वाले बच्चे, एक-एक सप्ताह भूखे रहने वाले बच्चे और बड़े होकर नक्सली बन जाने वाले एक इंसान ने लिखा था। इस किताब को पढ़कर समझ में आया कि ऐसे बच्चों की एक अलग ही दुनिया होती है, उनकी पीड़ा, तकलीफ और इंसानी दर्द को भरे पेट वाले लोग कभी छू भी नहीं सकते हैं। वे एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जिसको हम रोज अपन

क्या कभी ऐसा हो सकता है कि हम कुछ सोच ही न पाएं?

चित्र
मैं सोचती हूं कि मुझे कितनी सारी चीजों से कितनी शिकायतें रहती थीं , आजकल वो शिकायतें पता नहीं कहां चल गई हैं . करने कुछ बैठती हूं और करने कुछ और लगती हूं . कहते हैं कि हर बात का एक मतलब होता है लेकिन आजकल बहुत सारे शब्द मिलकर भी कुछ मतलब नहीं निकाल पाते मेरे जेहन में . सुबह आंख खुलती है और ऐसा लगता है कि सबकुछ ठीक है . यह कोई सामान्य दिन है . फिर खबरें बनाना शुरू करती हूं और लगता है कि मैं एक ऐसी दुनिया में जी रही हूं जिसके बारे में मुझे कुछ नहीं पता .  सोचती हूं कि कोरोना ने कैसे बाकी सारी खबरों को बेमतलब कर दिया . वह सारी चीजें जो टॉप प्राइरटी में थीं , वह सब कहां चली गईं ? मुझे याद नहीं आता कि मेरा कोई काम बहुत महत्वपूर्ण छूट रहा हो लेकिन अगर यही कोई सामान्य दिन होता तो मैं कह रही होती कि यह काम नहीं हुआ और वह काम नहीं हुआ . आजकल बस एक ही काम नहीं हो पा रहा है , वह है कुछ भी सही दिशा में सोच पाना . सबकुछ