संदेश

जुलाई, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

क्या यही मातृभाषा है देश की?

किसी को गाली देना इस देश की नहीं हर देश के लोगों के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह सच है कि लोग एक-दूसरे को गाली देते हैं लेकिन ज्यादातर गालियां महिलाओं को संबोधित करके ही दी जाती है. यह भी पितृसत्ता के उस मानसिकता को ही दर्शाता है जो यह सोचकर चलता है कि औरतें पुरुषों  की जागीर हैं और अगर उनकी अहम पर हमला करना हो तो उनकी मां, बहन और बेटियों को गाली दो।  यहीं कोई रात के 9 बज रहे होंगे मैं 323 नंबर की बस नोएडा से पकड़कर दिल्ली आ रही थी. बस वाला अपने आगे चल रहे एक दूसरे कार ड्राइवर को लगतार आधे घंटे से गाली दे रहा था। ऐसे तो मैं हमेशा इन बहसों से दूर ही रहना चाहती हूं। मगर बस ड्राइवर के पास खड़े रहने के कारण लगातार गाली सुनने मेरे बस की बात नहीं थी। मैंने बस वाले को गुस्से में कहा कि भाई ड्राइवर को जो कहना है कह लो। उसकी मां, बहन या बेटी गाड़ी तो चला नहीं रही कि उसे आधे घंटे से गाली दे रहे हो। और भला वह ड्राइवर भी तुम्हारी बात सुन नहीं रहा है इसलिए चुप हो जाओ। मेरी बात को सुनकर ड्राइवर कुछ पल के लिए चुप हो गया। उसके बाद उसने बड़े ही दर्शनशास्त्री की मुद्रा में कहा, 'मैडम गाली

गुलाबी निब से लिखा गया अक्षर

रोमी अपने कमरे में कई घंटो से पुरानी किताबों के बीच कुछ खोज रही थी अचानक किताबों के बीच में एक कार्ड चमका, जिसे रोमी सालों से ढूंढ रही थी मगर वह नहीं मिल रहा था। कार्ड के ऊपरी हिस्से में गुलाबी निब से लिखा गया अक्षर 'रोमी' और नीचे देनेवाले का नाम 'मोहित'  था। मोहित का नाम पढ़ते समय रोमी के चेहरे पर चमक आ गई, वह चाहकर भी मुस्कान रोक नहीं पा रही थी. पहले भी कई बार वह इस कार्ड को पढ़ चुकी थी मगर उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे यह कार्ड एकदम से अभी भेजा गया हो और उसे पता नही है कि अंदर क्या लिखा गया है। रोमी ने कार्ड पढ़ना शुरू किया। 'देखो रोमी तुम्हारे जन्मदिन पर मैं तुम्हें संबोधित नहीं कर रहा हूं क्योंकि संबोधन से सीमा तय होती है और मैं महज एक हर्फ से कोई सीमा तय नहीं करना चाहता हूं. कई महीनों की बातचीत और मुलाकातों के बाद जो एक बात निकली है, वह यह है कि तुममें ख्वाब देखने का जज्बा है और उसे पूरा करने का भी। जब कुछ साल बाद हम जिंदगी में अपना-अपना मुकाम हासिल कर चुके होंगे, तब हम शायद इस बात पर गर्व कर सकेंगे कि हमारी दोस्ती ने हमे एक साथ सजाया और सवारा है। तुम्

एक रिश्ते का अंत ऐसा भी....

चित्र
हर सिनेमा की तरह भारतीय सिनेमा में भी तीन बातें महत्वपूर्ण हैं, लाइट, कैमरा और एक्शन लेकिन सच्चाई यह है कि यहां की फिल्मों में कैमरा और लाइट की कलाकारी कम ही की जाती है. फिल्मों में खामोशी भरे दृश्य को भी लाइट और कैमरा की मदद से सफल बनाने वाले गुरु दत्त पहले ऐसे निर्देशक थे, जिन्होंने दर्शकों को फिल्मों की बारीकियों से रूबरू करवाया और इसमें उनका हर वक्त साथ निभाया मशहूर निर्देशक और पटकथा लेखक अबरार अल्वी ने. 1. 'प्यासा' के शुरुआती दिनों में यह फैसला लिया गया था कि फिल्म की कहानी कोठे पर आधारित होगी. लेकिन बस एक दिक्कत थी. दत्त कभी कोठे पर नहीं गए थे. दत्त जब कोठे पर गए तो वहां का मंजर देखकर वो हैरान रह गए. कोठे पर नाचने वाली लड़की कम से कम सात महीनों की गर्भवती थी, फिर भी लोग उसे नचाए जा रहे थे. गुरु दत्त ये देखकर उठे और अपने दोस्तों से कहा 'चलो यहां से' और नोटों की एक मोटी गड्डी जिसमें कम से कम हजार रुपये रहे होंगे, उसे वहां रखकर बाहर निकल आए. इस घटना के बाद दत्त ने कहा कि मुझे साहिर के गाने के लिए चकले का सीन मिल गया और वह गाना था, 'जिन्हें नाज है हिन्द पर वो