संदेश

अगस्त, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
शायद जिंदगी के जज्बात गीतों के उन गुथे हुए मालाओं की तरह ही होते हैं। जो हर मोती में जीने की चाहत देखना चाहते हैं और धागे में वादों से बंधी इक डोर ,मगर महज जज्बात ही जीने के लिए काफी नहीं होते जिंदगी की उन तमाम सच्चाईयों से मुख मोड़ा नही जा सकता है जो हमारे समय में मैक्सिम गोर्की के नोवेल पीले दैत्य की तरह हमारे शरीर को ही नही हमारी आत्मा को भी निचोड़ रहे हैं। 
ये दाग -दाग उजाला ये शब गज़ीदा सहर वो इन्तजार था जिसका ,ये वो सहर तो नही ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरज़ू लेकर चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं। - फैज़ अहमद फैज़ 
आँखों में खामोशी के चिन्ह होठों से ख़ुशी महरूम बचपन किसी फुटपाथ की गली में न जाने कब खो गया था सपनो में परियां न आती थी झूला झूलाने जिसे देख मन झूम जाए सपने में आते थे वो अंधेरे ,जिसकी सूरत कुछ रोटी जैसी गोल -गोल  थी दौड़ता था,गिरता था उसके पीछे मगर जब भी उसके करीब पंहुचा तो वह हंसकर और भी दूर उस होटल में  जा बैठी जहाँ जूठन पड़ा था।