कश्मीर यात्रा: उस सात दिन की पहली कहानी
जॉन बर्जर ने अपनी किताब ‘ वेज ऑफ सीइंग ’ में कहा है कि हम चीजों को जिस तरह से देखते हैं , वह इस बात से प्रभावित होता है कि हम क्या जानते हैं और क्या विश्वास करते हैं। हम क्या देखते हैं और क्या जानते हैं , इसके आपस का संबंध कभी भी पूरी तरह से स्थापित नहीं किया जा सकता है। हां तो मेरे साथ भी कश्मीर पहुंचने से पहले ऐसा ही कुछ था। बचपन में कश्मीर के बारे में यह पढ़ा था कि वहां सेब के बगीचे तथा शालीमार और निशात बाग हैं। लेकिन बड़े होने तक यह याद धूमिल पड़ गई थी। अफस्पा के साथ - साथ 90 के मिलिटेंसी के उभार के दौर की न जाने कितनी स्टोरीज आंखों के सामने से गुजरती रहीं। फिर पेशा भी ऐसा चुना कि कश्मीर की खबरों से दो - चार होना लगभग रोज का काम हो गया। कुल मिलाकर कश्मीर को मैं टुकड़े - टुकड़े में जानने लगी थी। लेकिन वाकई क्या मैं यह कह सकती थी कि कश्मीर को जानती हूं ? जानना पूरे परिदृश्य के लिए एक बड़ा शब्द है। मैं इस शब्द को छोड़कर कश्मीर देखने को निकल गई थी। एक दोस्त के साथ जो जन्मदिन पर कश्मीर जाना चाहती थी। कहीं जाने से पहले मेरी आदत एक आधी - अधूरी सी लिस्ट बनाने की है कि मैं कहा