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कब महिलाएं होंगी स्वंय निर्णायक?

जब कभी दिल्ली के किसी कार्यक्रम में जाती हूं तो वहाँ महिलाओं की मौजूदगी और उनके आत्मविश्वास की मुरीद हो जाती हूँ,सोचती हूं कि ऐसी कौन सी चीज इनके पास है जो हमारे ग्रामीण या शहरों महिलाओं के पास नहीं है जिसके कारण वह अपनी आवाज को हमेशा मन के अंदर दबाए-छिपाए रहती हैं और पितृसत्ता उनकी इसी खामोशी को अपनी ताकत की सीढ़ी समझ लेता है।                 भारत में सिर्फ 12 प्रतिशत संपत्ति ही महिलाओं के नाम पर है जो एक चिंतनीय विषय है क्योंकि मनुष्य की स्वतंत्रता का आधार  उसकी आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती  है। मनुष्य की आर्थिक कमजोरी मुक्ति की राह में सबसे बड़ा बाधक होता है। औरतों के मामले में तो यह कारक सबसे ज्यादा जिम्मेवार है।पुरुष वर्ग हमेशा इस आत्ममुग्धता में रहता है कि महिलाएं अपनी बुनयादी जरूरतों के लिए हमेशा उन पर निर्भर रहती है तो फिर वह अपने अस्तित्व के बारे में क्यों सोचें? एक बात मुझे हमेशा आश्चर्यजनक लगी है कि दुनिया के अस्तित्व को ढ़ोने वाली स्त्री का अपना अस्तित्व खतरे में आ गया। नारी के अस्तित्व को खतरे में लाने के पीछे एक लंबी प्रक्रिया है जिसको विभिन्न नारीवादी लेखिकाओं ने काफी

पत्रकारिता में महिलाएं

हाल ही में पत्रकारिता की छात्रा होने के नाते एक चर्चा में जाने का मौका मिला जिसमें देश भर से महिला पत्रकार आईं थी। चर्चा का विषय था “पत्रकारिता में महिलाएँ’’ यह विषय ही अपने आप में आधी आबादी का प्रतिनिधित्व कर रही था। तमाम मशहूर महिला पत्रकारों को सुनकर ऐसा लगा कि समय अपनी रफ्तार से चलता है जिसमें आए दिन परिवर्तन देखने को मिलता है। एक महिला होने के नाते आज भी पत्रकारिता के कुछ प्रश्न ठीक उसी तरह  खड़े हैं जो पिछले दशकों में उन बहादुर महिलाओं के सामने थे। जिन्होंने पत्रकारिता को सिर्फ पुरुषों की जागीर न रहने दिया। उन्होंने पत्रकारिता को सिर्फ एक पेशे के रूप में ही नहीं अपनाया बल्कि उस सोच को एक खुली चुनौती दी जिसमें पितृसत्ता यह मानती है कि महिलाओं के पास देह के अलावा और है क्या? उन सारी महिलाओं की उर्जा को देख मुझ जैसी नई पौध को एक नई रोशनी,नई उमंग मिली कि जब उस कठिन दौर में ये सभी मजबूत पितृसत्ता के ढाचे को तोड़कर जगह बना सकती हैं तो फिर आज के आधुनिक दौर में हम क्यों नहीं? इस चर्चा में कुछ तीखे प्रश्नों से रूबरू होने का मौका मिला कि आखिर क्यों ऐसे पदों पर ज्यादातर पुरुष ही काबिज

वोटों की राजनीति में वैमनस्यता कतई स्वीकार नहीं

मन के अंदर का वह प्रेम कितना धुंधला और कितना एकाकी नजर आने लगा है। उसकी तन्हाई में एक अजीब सा एहसास शामिल हो गया है जिससे दूर भागने का मन करता है। इतनी दूर जहाँ पर जिंदगी एक चराग बन जाए और उजाले महबूब। मगर प्रेम को बाजार ने यूं बेचना शुरू कर दिया जिससे महसूस होने लगा कि सीसे वाली उस दुकान से कोई नकली फूल खरीद लूं तो प्रेम मिल जाएगा मगर यहाँ भी मेरा प्रेम ठगा ही गया।                                   जब कभी सोचती हूं कि यदि यह सच होता तो पूरी दुनिया को क्यों न दुकान बना दिया जाए जहाँ पर सब कुछ प्रेम से होता। तब न सीरिया का कत्लेमाल सामने आता न ईरान की वह जमीन जो यह  भूल चुकी है कि कभी यहाँ पर शांति और प्रेम  घर में बसा करती थी। यहाँ तक कि भारत में क्षेत्रवाद के जहर के कारण कोई छात्र पीटाई से नहीं दम तोड़ देता।बस बाजार प्रेम का एक बिंब खड़ा कर रहा है जहां पर प्रेम की परछाई भी आधी अधूरी अवस्था में मानव हृद्यों के साथ खेला करती है। यह छाया हमेशा शहरों के उजाले में चक्कर लगाती है।आजकल बाजार का यह कदम शहरों तक नहीं बल्कि गाँवों के अंदर भी बड़े तेजी से बढ़ रहा है जहाँ पर न तो जीने योग्य स