कब महिलाएं होंगी स्वंय निर्णायक?
जब कभी दिल्ली के किसी कार्यक्रम में जाती हूं तो वहाँ महिलाओं की मौजूदगी और उनके आत्मविश्वास की मुरीद हो जाती हूँ,सोचती हूं कि ऐसी कौन सी चीज इनके पास है जो हमारे ग्रामीण या शहरों महिलाओं के पास नहीं है जिसके कारण वह अपनी आवाज को हमेशा मन के अंदर दबाए-छिपाए रहती हैं और पितृसत्ता उनकी इसी खामोशी को अपनी ताकत की सीढ़ी समझ लेता है। भारत में सिर्फ 12 प्रतिशत संपत्ति ही महिलाओं के नाम पर है जो एक चिंतनीय विषय है क्योंकि मनुष्य की स्वतंत्रता का आधार उसकी आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है। मनुष्य की आर्थिक कमजोरी मुक्ति की राह में सबसे बड़ा बाधक होता है। औरतों के मामले में तो यह कारक सबसे ज्यादा जिम्मेवार है।पुरुष वर्ग हमेशा इस आत्ममुग्धता में रहता है कि महिलाएं अपनी बुनयादी जरूरतों के लिए हमेशा उन पर निर्भर रहती है तो फिर वह अपने अस्तित्व के बारे में क्यों सोचें? एक बात मुझे हमेशा आश्चर्यजनक लगी है कि दुनिया के अस्तित्व को ढ़ोने वाली स्त्री का अपना अस्तित्व खतरे में आ गया। नारी के अस्तित्व को खतरे में लाने के पीछे एक लंबी प्रक्रिया है जिसको विभिन्न नारीवादी लेखिकाओं ने काफी