क्या कभी ऐसा हो सकता है कि हम कुछ सोच ही न पाएं?
मैं सोचती हूं कि मुझे कितनी सारी चीजों से कितनी शिकायतें रहती थीं , आजकल वो शिकायतें पता नहीं कहां चल गई हैं . करने कुछ बैठती हूं और करने कुछ और लगती हूं . कहते हैं कि हर बात का एक मतलब होता है लेकिन आजकल बहुत सारे शब्द मिलकर भी कुछ मतलब नहीं निकाल पाते मेरे जेहन में . सुबह आंख खुलती है और ऐसा लगता है कि सबकुछ ठीक है . यह कोई सामान्य दिन है . फिर खबरें बनाना शुरू करती हूं और लगता है कि मैं एक ऐसी दुनिया में जी रही हूं जिसके बारे में मुझे कुछ नहीं पता . सोचती हूं कि कोरोना ने कैसे बाकी सारी खबरों को बेमतलब कर दिया . वह सारी चीजें जो टॉप प्राइरटी में थीं , वह सब कहां चली गईं ? मुझे याद नहीं आता कि मेरा कोई काम बहुत महत्वपूर्ण छूट रहा हो लेकिन अगर यही कोई सामान्य दिन होता तो मैं कह रही होती कि यह काम नहीं हुआ और वह काम नहीं हुआ . आजकल बस एक ही काम नहीं हो पा रहा है , वह है कुछ भी सही दिशा में सोच पाना . सबकुछ