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कश्मीर यात्रा: उस सात दिन की पहली कहानी

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जॉन बर्जर ने अपनी किताब ‘ वेज ऑफ सीइंग ’ में कहा है कि हम चीजों को जिस तरह से देखते हैं , वह इस बात से प्रभावित होता है कि हम क्या जानते हैं और क्या विश्वास करते हैं। हम क्या देखते हैं और क्या जानते हैं , इसके आपस का संबंध कभी भी पूरी तरह से स्थापित नहीं किया जा सकता है। हां तो मेरे साथ भी कश्मीर पहुंचने से पहले ऐसा ही कुछ था। बचपन में कश्मीर के बारे में यह पढ़ा था कि वहां सेब के बगीचे तथा शालीमार और निशात बाग हैं। लेकिन बड़े होने तक यह याद धूमिल पड़ गई थी। अफस्पा   के साथ - साथ   90 के मिलिटेंसी के उभार के दौर की न जाने कितनी स्टोरीज आंखों के सामने से गुजरती रहीं। फिर पेशा भी ऐसा चुना कि कश्मीर की खबरों से दो - चार होना लगभग रोज का काम हो गया। कुल मिलाकर कश्मीर को मैं टुकड़े - टुकड़े में जानने लगी थी। लेकिन वाकई क्या मैं यह कह सकती थी कि कश्मीर को जानती हूं ? जानना पूरे परिदृश्य के लिए एक बड़ा शब्द है। मैं इस शब्द को छोड़कर कश्मीर देखने को निकल गई थी।    एक दोस्त के साथ जो जन्मदिन पर कश्मीर जाना चाहती थी। कहीं जाने से पहले मेरी आदत एक आधी - अधूरी सी लिस्ट बनाने की है कि मैं कहा

जॉर्ज ऑरवेल की किताब '1984' जैसी व्यवस्था की तरफ बढ़ रहे हैं हमारे कदम

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कितनी चीजें थी विरोध करने के लिए लेकिन चुप रहना ज्यादा जरूरी लगा क्योंकि थाली में सिर्फ रोटी नहीं हमें बहुत कुछ चाहिए था। हम दूर बैठे प्रधानमंत्री को गाली दे सकते थे लेकिन रोजाना जहां हमारा उठना-बैठना था, वहां हम गलत चीजों का विरोध नहीं कर पाए क्योंकि उसके परिणाम तुरंत सामने आने थे। जेहन में घर-परिवार था और जब यह भी नहीं था तो भविष्य की योजनाएं थीं। हम गलत निर्णय लेते गए लेकिन मन को यहां तक मना चुके थे कि यही सबसे सही फैसला था और हम अपने फैसलों पर गर्व करने लगे थे। हमारे कमरे  की अालमारियां उन किताबों से भरी हुई थीं जिसके नायक-नायिकाओं को प्रतिरोध के लिए पढ़ा-सुना जाता था। हम गांधी, मार्क्स, चे ग्वेरा, मार्टिन लूथर किंग जूनियर से अपने कमरे की दीवारें तो नीले-पीले करते रहे लेकिन बोलना बहुत कठिन था। हम हबीब जालिब के इंकलाबी नगमों को यू ट्यूब पर लूप में बजाते रहे लेकिन हमारा बोलना संभव नहीं हो सका। क्योंकि हम खाए-पीए-अघाए और अपनी बारी का इंतजार करते हुए लोग हैं। हम हर बार खुद को यह समझाकर रह जाते हैं कि ऐसा हमारे साथ तो नहीं हुआ। हमें ऐसा भ्रम है कि हम अपने घरों में सुरक्षित हैं, जबकि