‘तेरा पलट कर फिर न देखना, नहीं माफ करूंगा मैं, जब तक है जान’
बस कुछ कदम की दूरी थी . मेरे और उसके दरमियां . मुझे पता था कि वह मुड़कर नहीं देखेगा . मैं दौड़कर उसके कंधे पर झूल जाना चाहती थी लेकिन जहां दौड़ने की बारी थी , वहां मुझसे हिला तक नहीं गया . बस मैं टकटकी लगाए उसे आंखों से दूर होती देखती रही . मैं अपने सारे करीबी लोगों को जाते हुए बहुत गौर से देखती हूं कि शायद वह मुझे पलट कर देखेंगे . लेकिन ऐसा कम ही हो पाया है . लगभग न के बराबर . ‘ जब तक है जान ’ यह फिल्म जब आई थी तो उसकी यह पंक्ति मेरे दिमाग में अटक गई थी ‘ तेरा पलट कर फिर न देखना , नहीं माफ करूंगा मैं , जब तक है जान .’ मैं हमेशा सोचती हूं जो लोग मुझे बहुत प्यार करते होंगे वह पलट के देखेंगे। और अब तक यह न के बराबर हुआ है . लेकिन फिर मैं अपने बारे में सोचने लगती हूं कि मैंने कब मुड़के देखा है . शायद न के बराबर . यानी हिसाब बराबर का है। क्या इसका मतलब है कि मैं उन सारे लोगों को प्यार नहीं करती , जिनके बिना मैं होकर